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________________ १७ श्री रत्नत्रय विधान जयमाला (दोहा) सम्यक् ज्ञान महान का, आश्रय लूँ भगवान। . पाऊँ केवल ज्ञान प्रभु, करूँ कर्म अवसान || (वीरछंद) निजं अभेद का ज्ञान सुनिश्चय आठ भेद सब हैं व्यवहार। सम्यक् ज्ञान परम हितकारी शिव सुखदाता मंगलकार ॥ अक्षर पद वाक्यों का शुद्धोच्चारण ही है व्यंजनाचार । शब्दों के यथार्थ अर्थ का अवधारण है अर्थाचार | शब्द अर्थ दोनों का सम्यक् जानपना है उभयाचार | योग्यकाल में जिनश्रुत का स्वाध्याय कहाता कालाचार ॥ नम्र रूप रह लेश न उद्धत होना ही है विनयाचार । सदा ज्ञान का आराधन स्मरण सहित उपधानाचार ॥ शास्त्रों के पाठी अरु श्रुत का आदर है बहुमानाचार। नहीं छुपाना शास्त्र और गुरु नाम अह्निव है आचार ॥ आठ अंग है यही ज्ञान के इनसे दृढ़ हो. सम्यक् ज्ञान । पाँच भेद है मति श्रुत अवधि मनःपर्यय अरु केवलज्ञान॥ मति होता है इन्द्रिय मन से तीन शतक अरु छत्तीस भेद। श्रुत के प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं चउ अनुयोग सु भेद ।। द्वादशांग चौदह पूरब परिकर्म चूलिका प्रकीर्णक । अक्षर और अनक्षरात्मक भेद अनेकों हैं सम्यक् ।। अवधिज्ञान त्रय देशावधि परमावधि सर्वावधि जानों। भवप्रत्यय के तीन और गुण प्रत्यय के छह पहिचानों। मनपर्यय ऋजुमति विपुलमति उपचार अपेक्षा से जानों। नय प्रमाण से जान ज्ञान प्रत्यक्ष परोक्ष पृथंक मानों ॥
SR No.007157
Book TitleRatnatray Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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