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'श्री रत्नत्रय विधान
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समकित जब पाया है तो संयम के गीत सुनाओ। हो गए स्वरूपाचरणी तो निज से प्रीत बढ़ाओ ॥ निष्कंटकमार्ग मिला है इस पर ही चलते रहना। उपसर्ग परीषह आएँ तो हँसकर उनको सहना ॥ तुम चलित न होना पलभर अविचल स्वभाव से चेतन । विश्राम पूर्ण पाना है तो हरना भव के बंधन ॥ सम्यक् स्वभाव के निर्मल नित अर्घ्य चढ़ाऊँ स्वामी। पदवी अनर्घ्य पाऊँ मैं हो जाऊँ अन्तर्यामी ॥
(वीरछन्द) रत्नत्रयमंडल विधान कर हुआ हृदय में बहुआनंद । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमय पाऊँगा निज परमानंद ॥ रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश।
निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगंबरवेश ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यक् चारित्रस्वरूप रत्नत्रयधर्माय महाजयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा।
समुच्चय महाऱ्या
(ताटंक निज भावों का महार्घ्य ले पाँचों परमेष्ठी ध्याऊँ। जिनवाणी जिनधर्म शरण पा देव-शास्त्र-गुरु उर लाऊँ॥ तीसचौबीसी बीसजिनेश्वर कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्य ध्याऊँ। सर्व सिद्ध प्रभु पंचमेरु नन्दीश्वर गणधर गुण गाऊँ॥ सोलहकारण दशलक्षण रत्नत्रय नवं सुदेव पाऊँ। चौबीसों जिन भूत भविष्यत वर्तमान जिनवर ध्याऊँ ॥ तीन लोक के सर्व बिम्ब जिन वन्दूँ जिनवर गुण गाऊँ। अविनाशी अनर्घ्य पद पाऊँ शुद्ध आत्मगुण प्रगटाऊँ ॥
न स्वाहा।