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श्री रत्नत्रय विधान
जयमाला
( दोहा )
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बिन सम्यक् चारित्र के, मुक्ति असंभव मान । तेरहविध चारित्र ही, मंगलमय विधान ||
( वीरछंद )
निज स्वरूप में रमण सुनिश्चिय दो प्रकार चारित्र व्यवहार । श्रावक त्रेपन क्रिया साधु का तेरह विधि चारित्र अपार ॥ पंच उदम्बर त्रय मकार तज जीवदया अणुव्रत का ज्ञान । देववन्दना जल गालन निशिभोजन त्यागी श्रावक जान ॥
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दर्शन ज्ञान चरित्र ये त्रेपन क्रिया सरल पहिचान । पाक्षिक नैष्ठिक साधक तीनों श्रावक के हैं भेद प्रधान ॥ ग्यारह प्रतिमाएँ मैं पालूँ निरतिचार मेरे स्वामी । फिर निर्ग्रन्थ दशा मैं धाऊँ विनय सहित अन्तर्यामी ॥
परम अहिंसा षट्कायक के जीवों की रक्षा करना । परमसत्य है हितमित प्रिय वच सरलसत्य उर में धरना ॥ परम अचौर्य बिना पूछे तृण तक भी नहीं ग्रहण करना । परम शील व्रत पालन करना ब्रह्मचर्य महिमा धरना || अपरिग्रही अनिच्छुक होता अपरिग्रह व्रत उर धरना । पंच महाव्रत यही साधु के पूर्ण देश पालन करना ॥ ईर्या समिति सुप्रासुक भू पर चार हाथ भू लख चलना । भाषा समिति चार विकथाओं से विहीन भाषण करना ॥
श्रेष्ठ ऐषणा समिति अनुद्देशिक आहार शुद्धि करना । है आदान निक्षेपण संयम के उपकरण देख धरना ॥ प्रतिष्ठापना समिति देह के मल भू देख त्याग करना । पंच समिति पालन कर अपने राग द्वेष को क्षय करना ॥
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