________________
श्री रत्नत्रय विधान
૨૬
-
अंतिम महाऱ्या
(दोहा) महार्घ्य अर्पण करूँ, रत्नत्रय अधिराज। रत्नत्रय धारण करूँ, पाऊँ निजपद राज ॥
(दिग्वधू) जिया कब तक उलझेगा संसार विकल्पों में। कितने भव बीत चुके संकल्प-विकल्पों में ॥ उड़-उड़ कर यह चेतन गति-गति में जाता है। रागों में लिप्त सदा भव-भव दुःख पाता है। पल भर को भी न कभी निज आतंम ध्याता है। निज-तो. न सुहाता है पर ही मन भाता है || यह जीवन बीत रहा झूठे संकल्पों में। जिया कब तक उलझोगा संसार विकल्पों में ॥ निज आत्मस्वरूप लखें तत्त्वों का कर निर्णय । मिथ्यात्व छूट जाए समकित प्रगटे 'निजमय ॥ निज परिणति रमण करे हो निश्चय रत्नत्रय । निर्वाण मिले निश्चित छूटे यह भव दुःखमय ॥ सुख ज्ञान अनंत मिले चिन्मय की गल्पों में। जिया क बतक उलझोगा संसार विकल्पों में ॥ शुभ-अशुभ विभाव तजे है हे य अरे आस्रव । संवर का साधन ले चेतन का ले अनुभव ।। शुद्धात्मा का चिन्तन आनंद अतुल अनुभव | कर्मों की पगध्वनि का मिट जायेगा कलरव ॥ तू सिद्ध स्वयं होगा पुरुषार्थ स्वकल्पों में । जिया कब तक उलझेगा संसार विकल्पों में ॥