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श्री रत्नत्रय विधान
श्री सम्यक् ज्ञान पूजन
स्थापना
( गीतिका )
प्रभो सम्यग्ज्ञान की पूजन करूँ शुभभाव से ।
त्वरित: ही अज्ञान नाशँ जुइँ आत्मस्वभाव से ॥ मोहजन्य कुबुद्धि क्षय कर दूँ प्रभो निज ज्ञान से । पूर्ण केवलज्ञान पाऊँ आत्मा के ध्यान से ॥ ज्ञान का आवरण नार्थौ दर्शनावरणी हरूँ । मोह क्षयकर अन्तराय विनाश स्वचतुष्टय वरूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञान अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञान अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञान अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
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(सार जोगीरासा )
ज्ञान स्वभावी शीतल जल से मैं अज्ञान विनायूँ । त्रय रोगों की पीड़ा हरने आत्म स्वभाव विकासूं ॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी ।
मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। सर्वोत्तम चंदन निज लाऊँ सम्यक् ज्ञान स्वरूपी । भवाताप हरने में सक्षम सहजानंद अनूपी ॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी ।
मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ, निज ध्रुवध्यानी ॥
ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा !