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________________ श्री रत्नत्रय विधान . . , भव समुद्र की भंवरों में फंस टूटी अब तक मेरी नाव । पुण्योदय से तुम सा नाविक पाया. मुझको पार लगाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव। रत्नत्रय की पूंजन करके राग-द्वेष का करूँ अभाव ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय अक्षयपदप्राप्ताय अक्षतान् नि. स्वाहा। काम क्रोध मद मोह लोभ से मोहित हो करता परभाव । दृष्टि बदल जाये तो सृष्टि बदल जाये यह सुमति जगाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव । रत्नत्रय की पूजन करके राग-द्वेष का करूँ अभाव ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय कामबाणविनाशनाय पुष्पं नि. स्वाहा। पुण्य भाव की रुचि में रहता इच्छाओं का सदा कुभाव। क्षुधारोग हरने को केवल निज की रुचि ही श्रेष्ठ उपाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव । रत्नत्रय की पूजन, करके राग-द्वेष का करूँ अभाव ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा। ज्ञान ज्योति बिन अंधकार में किये अनेकों विविध विभाव । आत्मज्ञान की दिव्यविभा से मोहतिमिर का करूँ अभाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव। रत्नत्रय की पूजन करके राग-द्वेष का करूँ अभाव ॥. ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा। घातिकर्म ज्ञानावरणादिक निज स्वरुप घातक दुर्भाव। ध्रुव स्वभावमय शुद्ध दृष्टि दो अष्टकर्म से मुझे बचाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव । रत्नत्रय की पूजन करके राग-द्वेष का करूँ अभाव । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय अष्टकर्मविनाशनाय धूपं नि. स्वाहा। निज श्रद्धाज्ञान चरितमय निज परिणति से पा निज ठाँव। महामोक्ष फल देने वाले धर्म वृक्ष की पाऊँ छाँव ।।
SR No.007157
Book TitleRatnatray Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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