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श्री रत्नत्रय विधान
जयमाला
( दोहा )
: सम्यक दर्शन बिन नहीं, स्वपर भेद - विज्ञान | रत्नत्रय का मूल यह, महिमामयी महान |
( वीरछन्द ) आत्मतत्त्व की प्रतीति निश्चय सप्ततत्त्व श्रद्धा व्यवहार | सम्यक्दर्शन से हो जाते भव्य जीव भव सागर पार ॥ विपरीताभिनिवेशरहित अधिगमज निसर्गज समकित सार । औपशमिक क्षायिक क्षयोपशम होता है यह तीन प्रकार आर्ष, मार्ग, बीज, उपदेश, सूत्र, संक्षेप अर्थविस्तार । समकित है अवगाढ़ और परमावगाढ़ दश भेद प्रकार ॥ जिन वर्णित तत्त्वों में शंका लेश नहीं निःशंकित अंग । सुरपद या लौकिक सुख वांछा लेश नहीं निकांक्षित अंग ॥
पदार्थों में न ग्लानि हो शुचिमय निर्विचिकित्सा अंग । देव शास्त्र गुरु धर्मात्माओं में रुचि अमूढदृष्टि सुअंग ।। पर दोषों को ढकना. स्वगुण वृद्धि करना उपगूहन अंग । धर्ममार्ग से विचलित को थिर रखना स्थितिकरण सुअंग ॥
साधर्मी में गोवत्स सम पूर्ण प्रीति वात्सल्यः सुअंग । जिन पूजा तप दया दान मन से करना प्रभावना अंग ॥ आठ अंग पालन से होता है सम्यक् दर्शन निर्मल | सम्यक् ज्ञान चारित्र उसी के कारण होता है उज्ज्वल ॥
शंका कांक्षा विचिकित्सा अरु मूढ़दृष्टि अनूपगूहन । ' 'अस्थितिंकरण अवात्सल्य अप्रभावना वसु दोष सघन ।।
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