Book Title: Ratnatray Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 30
________________ . २७ श्री रत्नत्रय विधान यदि अवसर चूका तो भव-भव पछताएगा। फिर काल अनंत अरे दुःख का घन छाएगा ॥ यह नर भव कठिन महा किस गति में जाएगा। नर भव पाया भी तो जिनश्रुत ना पाएगा | अनगिनती जन्मों में अनगिनती कल्पों में। जिया कब तक उलझेगा संसार विकल्पों में | ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यकचारित्रस्वरूप रत्नत्रयधर्माय महालूँ | निर्वपामीति स्वाहा। महाजयमाला (सोरठा ) सकल जगत विख्यात है, रत्नत्रय का नाम। कर सकती कल्याण निज, यही औषधि श्रेष्ठ ॥ (मानव ) रत्नत्रय विधान करके रत्नत्रय को कर वंदन । रत्नत्रय उर में धारूँ क्षय कर दूँ भव के बंधन ॥ चैतन्यतत्त्व के भीतर परिपूर्ण ज्ञान का सागर । निजपरिणति प्रमुदित हो तो भर लो निज अनुभव गागर॥ अपने स्वभाव की महिमा को थोड़ा सा तो जानो। तुम एक त्रिकालीध्रुव हो अपने को तो पहिचानो ॥ भव-भव में भटके हो तुम चारों गतियों में जाकर। पशुगति में भी जन्में हो तुम ग्रीवक तक से आकर॥ निज बोधिप्राप्त करने को यह नरभव पाया है। अपने कल्याण हेतु ही यह अवसर फिर आया है। अब रचा हृदय रांगोली समकित का स्वागत कर लो। मिथ्यात्व मोह की सारी कालुषता अब तो हर लो॥

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