________________
श्री रत्नत्रय विधान
૨૨
दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
1
अपरिग्रही अनिच्छुक होकर सर्व परिग्रह भाव हरूँ । तिलतुष मात्र न हो ममत्व प्रभु मैं सम्यक् व्यवहार करूँ ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥५॥ ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा । पंचसमिति संबंधी अर्घ्य
ईर्या समिति सदा मैं पालूँ देखभाल कर चलूँ सदा । चार हाथ, जूड़ा प्रमाण भू चरण रखूँ मैं प्रभो सदा ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥१ ॥ ॐ ह्रीं श्री ईर्यासमितिसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । भाषा समिति पूर्णतः पालूँ हित मित प्रिय वच कहूँ सदा । कभी भूलकर भी असत्य वच मुख से निकले नहीं कदा ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीं भाषासमितिसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। समिति एषणा पालूँ स्वामी शुद्धि पूर्वक करूँ अहार । मात्र अल्प भोजन लूँ तनहित करूँ स्वयं का ध्यान अंपार ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥३ ॥ ॐ ह्रीं श्री एषणासमितिसमन्वित सम्यंंंचारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
समिति आदान निक्षेपण पालूँ धरूँ उठाऊँ वस्तु सदा । मात्र जीव रक्षा विचार हो सावधान मैं रहूँ सदा ॥