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श्री रत्नत्रय विधान
ज्ञान सुतरु की छाया मैं आ श्रेष्ठ मोक्ष फल पाऊँ । अपुर्न भव प्रगटा स्वामी पूर्ण आत्म सुख पाऊँ ॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी। मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय मोक्षफलप्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा। अर्घ्य बनाऊँ भावमयी मैं निज गुण चिन्तन करके । स्वपद अनर्घ्य प्रकट कर लूँ मैं सारे भव दुःख हरके || भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी। मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। सम्यग्ज्ञान के अष्ट अंग सम्बन्धी अर्घ्य
(वीरछंद) . कुमति कुज्ञान विनाश करूँ मैं सुमति बनाऊँ परम पवित्र । प्रभु व्यंजनाचार अंग पा लखू स्वयं के चित्र ॥ सम्यक् ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान । रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री व्यजंनाचार-अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुत कुज्ञान दोष मैं नायूँ जिन श्रुत ज्ञानी बन जाऊँ। अर्थाचार समझकर पालूँ सम्यक ज्ञानी हो जाऊँ ॥ सम्यक ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान। रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री अर्थाचार-अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । कुअवधि युत अज्ञान विनायूँ सम्यक् ज्ञान सहज पालूँ। सम्यक् उभयाचार अंग को ज्ञान सहित उर में ढालूँ ॥ सम्यक् ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान |
रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥३॥ | ॐ ह्रीं श्री उभयाचार-अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।'