Book Title: Ratnatray Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 21
________________ श्री रत्नत्रय विधान जय जय सम्यक् ज्ञान अष्ट अंगों से युक्त मोक्ष सुखकार । लोक में विमल ज्ञान की गूंज रही है जय जयकार ॥ सम्यक् ज्ञान प्राप्त होते ही होता है सम्यक् चारित्र । मोक्षमार्ग प्रारंभ होता है साधक होता शुद्ध पवित्र ॥ ॐ ह्रीं श्री अष्ट- अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । आशीर्वाद (दोहा) सम्यग्ज्ञान बिना नहीं होता निज का बोध | केवलज्ञान महत्त्व से लेता है यह मोक्ष ॥ , इत्याशीर्वाद करने योग्य कार्य "जिन मन्दिर संसार रूपी रेगिस्तान में कल्पवृक्ष के समान है" "सो जहाँ अरहंतानि का प्रतिबिम्ब है तहाँ नव रूप गर्भित जानना, क्योंकि आचार्य, उपाध्याय व साधु तो अरहंत की पूर्व अवस्थायें हैं अर सिद्ध पहले अरहंत होकर सिद्ध हुए हैं, अरहंत की वाणी सो जिनवचन है और वाणी द्वारा प्रकाशित हुआ. अर्थ (वस्तुस्वरूप) सो जिन धर्म ' है तथा अरहंत का स्वरूप (प्रतिबिम्ब) जहाँ तिष्ठै सो जिनालय है। ऐसे नव देवता रूप भगवान अरहंत के प्रतिबिम्ब का पूजन नित्य ही करना योग्य है । ' " १८ पं. सदा सुखदास जी ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार)

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