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श्री रत्नत्रय विधान
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अनूपगूहनदोष त्यागकर गुण सबके प्रगटाऊँ । ऋषि मुनि श्रावक सबके दोषों को न कभी प्रगटाऊँ ॥ अष्टदोष से विरहित होकर सम्यदर्शन पाऊँ । सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी सर्वदोष विनशाऊँ ॥४ ॥ ॐ ह्रीं श्री उपगूहन- अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । मूढ़ दृष्टियुत दोष विनायूँ सकल मूढ़ता नार्थौ । निज शुद्धात्मतत्त्व की महिमा पाऊँ ज्ञान प्रकाशँ ॥ अष्टदोष से विरहित होकर सम्यदर्शन पाऊँ । सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी सर्वदोष विनशाऊँ ॥५ ॥ ॐ ह्रीं श्री अमूढ़दृष्टि- अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । जिनपथ से जो डिगते हों मैं उनको सुथिर बनाऊँ । धर्मेजन की सेवा करके अपना धर्म निभाऊँ ॥ अष्टदोष से विरहित होकर सम्यदर्शन पाऊँ । सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी, सर्वदोष विनशाॐ ॥ ६ ॥ ७. ॐ ह्रीं श्री स्थितिकरण- अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । साधर्मी वात्सल्य न भूलूँ प्रीति करूँ मैं मन से । मुनि अरु श्रावक संघ की सेवा करूँ मैं तन-मन-धन से ॥ अष्टदोष से विरहित होकर सम्यग्दर्शन पाऊँ । सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी सर्वदोष विनशाऊँ ॥७ ॥ ॐ ह्रीं श्री वात्सल्य- अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्रीजिनधर्म प्रभाव करूँ मैं शुद्ध आचरण द्वारा । जिनश्रुत ज्ञानदान आदि से दूर करूँ अंधियारा ॥ अष्टदोष से विरहित होकर सम्यदर्शन पाऊँ । सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी सर्वदोष विनशाऊँ ॥८ ॥ ॐ ह्रीं श्री प्रभावना - अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।