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श्री रत्नत्रय विधान
सम्यक् दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है।
समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय मोक्षफलप्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा। धर्म शुक्ल दोनों ध्यानों के अर्घ्य बनाए हैं स्वामी। पद अनर्घ्य की प्राप्ति करूँ मैं विनय यही अन्तर्यामी ।। सम्यक् दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है।
समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय अनर्घ्यपदप्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। सम्यग्दर्शन के अष्ट अंगसम्बन्धी अर्घ्य
(सार जोगीरासा ) शंका दोष विहीन बनूँ मैं निर्मल समकित धारूँ। तत्त्वाभ्यास करूँ नित स्वामी आत्मस्वरूप विचारूँ ॥ अष्ट दोष से विरहित होकर सम्यदर्शन पाऊँ। सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी सर्वदोष विनशाऊँ ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री निशंकित-अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। कांक्षादोष तर्जे हे स्वामी निर्मलता उर धेर लूँ। भवसुख की इच्छाएँ सारी हे प्रभु मैं सब हर लूँ॥ अष्ट दोष से विरहित होकर सम्यदर्शन पाऊँ । सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी सर्वदोष विनंशाऊँ ॥२ ॥ ॐ ह्रीं श्री निकांक्षित-अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। विचिकित्सा का दोष त्याग दूं समकित ह्रदय सजाऊँ। ऋषि मुनियों की वैय्यावृत्ति में अपना ध्यान लगाऊँ॥ अष्ट दोष से विरहित होकर सम्यदर्शन पाऊँ । सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी सर्वदोष विनशाऊँ ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री निर्विचिकित्सा-अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।