Book Title: Ratnatray Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ श्री रत्नत्रय विधान (मानव) अविलम्ब मुक्ति सुख पाने दृढ़ उर प्रगटाऊँ। परिपूर्ण ज्ञान गुण द्वारा भव दुःख सारे विघटाऊँ ॥ चारों गति के दुःख क्षय हित सम्यकचारित्र धरूँ। भव विजय सर्व करने को रत्नत्रय उर लाऊँ मैं ।।.. पहिले मिथ्यात्व हरूँ मैं जो भव बंधन कारी है। ले भेद ज्ञान अवलंबन सम्यक्त्व गीत ही गाऊँ। दूजे अविरति को जीतूं लूँ एकदेश व्रत संयम। तीजे प्रमाद जय करके परिपूर्ण स्वसंयम पाऊँ । चौथे कषाय को जीतूं घातिया नाश करने को। क्षय सर्व कषायें करने उर यथाख्यात गुण लाऊँ॥ श्रेणी चढ़ने पर ही तो प्रभु यथाख्यात मिलता है। दृढ़ यथाख्यात पाने को अब शुक्ल ध्यान ही ध्याऊँ। पंचम जीतूं योगों को हो जाऊँ त्वरित अयोगी। क्षयहित अघातिया चारों निजअनुभव हृदय सजाऊँ॥ ये ही हैं पाँचों प्रत्यय जो बंध भाव के कारण। पाँचों ही प्रत्यय जयकर परिपूर्ण मोक्ष सुख पाऊँ ॥ मैं भी रत्नत्रय धारूँ दो शक्ति यही हे स्वामी। ध्रुव सिद्ध स्वपद निज पाऊँ यह सुन लो अन्तर्यामी॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यक्चारित्रस्वरूपरत्नत्रयधर्माय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। आशीर्वाद (दोहा) रत्नत्रय व्रत श्रेष्ठ की, महिमा अगम अपार । जो यह व्रत धारण करे, हो जाये भव पार॥ इत्याशीर्वाद

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34