Book Title: Rambhashuk Samvad
Author(s): Hariprasad Bhagirath
Publisher: Hariprasad Bhagirath
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(१४) तपकी समाधिमें जिसनें अनुभव नहीं किये उस नरका जीवना व्यर्थही गया ॥ १९॥
रम्भोवाच ॥ कठोरपीनस्तनभारनम्रा
सुमध्यमा चञ्चलखञ्जनाक्षी॥ हेमन्तकाले रमिता न येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ २० ॥ अर्थ-रंभा कहने लगी-हे मुने ! कठोर भारे स्तन, ( कुचाओं) के भारसे नमी हुई, सुंदरपतली कटीवाली, खंजनपक्षीके नेत्रसमान चंचल नेत्रोंवाली, सुंदरी स्त्रीके संग जिसने हेमन्त ऋतुमें रमण नहीं किया, उस नरका जीवना वृथा गया ॥ २०॥
शुक उवाच ॥ तपोमयो ज्ञानमयो विजन्मा
विद्यामयो योगमयः परात्मा ॥ चित्ते धृतो नो तपसि स्थितेन __ वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ २१ ॥
अर्थ-शुकमुनि बोले-हे रंभे ! तपोमय (सर्व तपमधान ), ज्ञानमय ( सर्व ज्ञानप्रधान ), जन्मरहित, अनंत
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