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(१३)
रम्भोवाच ॥ कस्तूरिकाकुङ्कुमचन्दनैश्च
सुचर्चिता याऽगुरुधूपिताम्बरा ॥ उरःस्थले नो लुठिता निशायां __ वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ १८॥
अर्थ-रंभा कहनेलगी-हे मुने ! कस्तूरी केशर चंदन इन्होंका लेप कियेहुए, और अगरकी धूपसे धूप दिये हुए तथा अतर आदिकी खुशबूसे युक्त वस्त्रोंको धारण किये हुए, जो मनोहर सुंदरी नारी है वह जिसनें रात्रिमें अपने हृदयपर नहीं लुटाई (प्यार न किया) उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥ १८ ॥
शुक उवाच ॥ आनन्दरूपो निजबोधरूपो
दिव्यस्वरूपो बहुनामरूपः॥ तपःसमाधौ कलितो न येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ १९ ॥ अर्थ-शुकमुनि बोले-हे रंभे! आनंदरूप, निजबोधरूप (स्वयंप्रकाशक), दिव्य ( अलौकिक ) स्वरूपवाले, बहुत नाम और अनंत रूपवाले, ऐसे भगवान् परमात्मा
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