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(२०)
संसविता येन सदा मलाढया
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ३१ ॥ अर्थ-शुकमुनि बोले-हे रंभे ! कपट छलका वेष धारण करनेवाली, मनुष्योंको ठगानेवाली, विष्ठा, मूत्र, दुर्गधको (भरी) गुफारूप, और खराब मनोरथवाली, सदा मलिन ऐसी स्त्री जिसनें सेवन करी उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥ ३१ ॥
रम्भोवाच ॥ चन्द्रानना सुन्दरगौरवर्णा
व्यक्तस्तनी भोगविलासदक्षा ।। नान्दोलिता वै शयनेषु येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ।। ३२॥ अर्थ-रंभा बोली-हे मुने! चंद्रमाकेसमान मुखवाली, सुंदर गौरवर्णवाली, प्रकट ( ऊंचे ) स्तनोंवाली (कुचाओंवाली ), भोगविलासमें चतुर, ऐसी सुंदरी स्त्री जिसनें शय्याके ऊपर सुंदर रमण नहीं की, उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥ ३२॥
शुक उवाच ॥ उन्मत्तवेषा मदिरासुमत्ता
पापप्रदा लोकविडम्बिनी या ॥
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