Book Title: Rambhashuk Samvad
Author(s): Hariprasad Bhagirath
Publisher: Hariprasad Bhagirath
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(२८) निर्मासि चित्ते व्रजसुन्दरीणां
कामं विभो लोचनगोचरस्त्वम् ॥ किमत्र चित्रं तव भाति चित्ते
कामस्य राधे जनकोऽहमास्मि ॥७॥ अर्थ-हे विभो ! तुम बजकी सुंदरियोंके नेत्रों आगे दर्शन देके उनके चित्तमें कामदेवकों उत्पन्न करतेहो? हे राधे ! वहां इस वातमें तुझे क्या विचित्र मालूम होताहै ? मैं कामका ( प्रद्युम्न का ) जनक (पिता) हूं ॥ ७॥ जना जगत्या जगदीश शश्व
त्त्वां राधिकाजारमुदाहरन्ति ॥ निन्दन्तु लोका यदि वा स्तुवन्तु
प्राणेश्वरीं त्वां न परित्यजामि ॥ ८॥ अर्थ-हे जगदीश ! पृथ्वीपर निरंतर सब लोग तुमको राधिकाविषे जार बताते हैं? लोक चाहे निंदा करो वा स्तुति करो, परंतु प्राणेश्वरि ! तुमको नहीं त्यागूंगा ॥८॥ कलानिधि गोकुलराजमानं श्यामाप्रियं त्वा विधुमेव मन्ये॥
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