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रम्भाशुकसंवादः
राधाकृष्णसंवादश्च भाषार्थानुवादसमलंकृतौ।
___ इमौ ग्रन्थौ भगीरथात्मज-हरिप्रसादेन
मुम्बय्यां
Yockasarokals
Sketc..ook
गुजराती यन्त्रालये मुद्रयित्वा प्रकाशितौ ।
द्वितीयावृत्तिः संवदब्दाः १९६० शकाव्दाः १८२५
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अस्य सर्वेऽधिकाराः प्रकाशयित्रा स्वायत्तीकृताः।
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Serving Jinshasan
विमान
श्रीमहालीरीन
119028 gyanmandir@kobatirth.org
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।। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।। ।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। । योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। ।। चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर (जैन व प्राच्यविद्या शोधसंस्थान एवं ग्रंथालय)
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक : १३६४
न
आराधना
श्री महावीर
कन्द्र की
अमृतं
तु विद्या
तु
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079)23276252,23276204 फेक्स : 23276249
Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर हॉटल हेरीटेज़ की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079) 26582355
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भूमिका। विदित हो कि - रंभाशुकसंवाद छोटासा ग्रंथ बहुत उत्तम है, यह ज्ञानोलोग और रसिकलोग इन दोनोंकोही उपयुक्त है. सब अज्ञलोग तो रात्रदिन संसारसंबंधी विषयोंकोही मर . सुख मानकर उनमें निमग्न हो रहते हैं, ऐसे विषयी जनोंको विषयोंकेही मार्गसे भगवन्नाम और गुणानुवा
में अभिलाषा उपजना जरूर है. इसवास्ते शृंगारगर्भित इस काव्यमें देखिये कि-पहले एक श्लोकमें स्त्रीका (रंभाका) वचन है, तहां शृंगाररस वर्णन किया है, फिर एक श्लोकमें मुनि शुकाचार्यके वचनमें वैराग्यरस वर्णन किया है, ऐसे प्रश्नोत्तर होते गये हैं. यह अति मधुर छोटासा काव्य संस्कृतमात्रही था, परंतु संस्कृतवाणीमें परिश्रम नहीं किये ऐसे सब लोगोंकू इस काव्यकी रसमाधुरी अनायाससे प्राप्त होवे इसलिये हमनें अब श्लोक श्लोकके अनुवादपूर्वक हिंदी सरलभाषा वेरीग्रामनिवासी पंडित वस्तीरामजीसे बनवायकर यह ग्रंथ प्र. सिद्ध किया है. भाषा विस्तारपूर्वक लिखी है और इसमें यह उत्तमता विशेष है कि, श्लोकश्लोकके पद अन्वयके अनुकूलही अर्थ लिखे गये हैं, और राधाकृष्णसंवादभी बडा मनोरम ललित है, आधे श्लोकमें श्रीराधाजीका प्रश्न है और आधेश्लोकमें श्रीकृष्णजीका जबाब है, तिसकी भाषा उत्तम की है सो सब देखनेसे मालूम होवेगा. हरिप्रसाद भगीरथजी.
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रम्भाशुकसंवादः । भाषानुवादसमलंकृतः ।
श्रीः । उत्थानिका -सुना जाता है कि, पहले एक समय श्रीशुकदेवस्वामी गंगाजीके तटपर तपस्याकर रहे थे, तब उनके तपोबलकों देख इंद्र घबराया कि यह मुनि अपने तपोबलसे मेरे राज्यकों लेगा. इसलिये, किसी उपायसे इसकी तपस्या नष्ट करनी चाहिये इस अभिप्रायसे इंद्रनें मनमोहिनी अप्सराओंमें अति सुंदर मोहनी रंभानामक एक अप्सरा सब शृंगार सजाके मन हर्षाके मुनिके पास भेजी. वह आके अपने मुखका पट खोळ, कोमल वचन बोल मुनिको मोहनेलगी
रम्भोवाच ॥
मार्गे मार्गे नूतनं चूतखण्डं खण्डे खण्डे कोकिलानां विरावः ॥ रावेरावे मानिनीमानभङ्गो
भङ्गे भङ्गे मन्मथः पञ्चह्मणः ॥ १ ॥
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(४) अर्थ-रंभा कहती है-(हे मुनि ! आप दृष्टि पसारके देखिये-) मार्गमार्गमें (चहूँ तरफ) नवीन आमोंके वाग (बगीचे) हैं, फिर (तिनमें ) बागवागमें कोयलोंका बहुत उत्तम कूजन शब्द हो रहा है, (तिन कोयलोंके ) शब्दशब्दमें स्त्रियोंका मानभंग होता है, अर्थात् अपने वचनसे प्रिय वचन सुनके वा याहास्तीसे मानभंग होता है फिर मानभंग होनेमें कामदेव अपने पांच बाणोंसहित प्रकट होताहै ॥ १॥
शुक उवाच ॥ मार्गे मार्गे जायते साधुसङ्गः
सङ्गे सङ्गे श्रूयते कृष्णकीर्तिः॥ कीर्ती कीर्ती नस्तदाकारवृत्ति
वृत्तौ वृत्तौ सच्चिदानन्दभासः ॥२॥ अर्थ-(रंभाका भाषण श्रवण कर शुकदेवजी बोले- ) हे कामिनि ! मार्गमार्गमें तो साधुजनोंका संग हो जाता है, तहां संगसंगमें श्रीकृष्णचंद्रजीका यश सुना जाता है, तिस यश (कीर्तिकीर्ति ) में हमारी तदाकार लवलीन वृत्ति (चित्तको एकाग्रता ) होती हैं, तिस एकाग्रता वृत्तिवृत्तिमें सचिदानंदका आभास होता है, अर्थात् परमानंदकी प्राप्ति होती है ॥२॥
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(५)
तीर्थे तीर्थे निर्मलं ब्रह्मवृन्दं
वृन्दे वृन्दे तत्त्वचिन्तानुवादः॥ वादे वादे जायते तत्त्वबोधो ___ बोधे बोधे भासते चन्द्रचूडः॥३॥
अर्थ-और तीर्थतीर्थविषे निर्मल ब्रह्मावूद हैं, (अनेक निर्मल शुद्ध ) ब्राह्मणलोग रहते हैं, तिनके वृंदवृंदमें आत्मतत्त्व चिंतनका अनुवाद (वेदांतकी चर्चा ) रहता है, तिस वादवादमें आत्मतत्त्वका बोध होता है, और बोधबोधमें चंद्रशेखरका (ईश्वरका ) साक्षात्कार होता है ॥३॥
- रम्भोवाच ॥ गेहे गेहे जङ्गमा हेमवल्ली
वल्ल्या वल्ल्यां पार्वणं चन्द्रबिम्बम् ।। बिम्बे बिम्बे दृश्यते मीनयुग्मं
युग्मे युग्मे पञ्चबाणप्रचारः॥ ४॥ अर्थ-रंभा बोली-हे ऋषिराज! घरघरमें चलनेवाली हेमलता रहती है, अर्थात् विचित्र सुंदरी स्त्री सुवर्णकी वेलसमान इधरउधर फिरती है, तिस स्त्रीका मुख पूर्णचंद्रमाके समान है, तहां मुखरूप प्रतिचंद्रमापर दो नेत्र
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दो मछलियोंकी तरह दीखते हैं, तिन नेत्रोंके ऊपर कामदेवका प्रचार होता है ॥४॥
शुक उवाच ॥ स्थाने स्थाने दृश्यते रत्नवेदि
वैद्यां वेद्या सिद्धगन्धर्वगोष्ठी ॥ गोष्ठयां गोष्ठयां किन्नरद्वन्द्वगीतं ।
गीते गीते गीयते रामचन्द्रः ॥ ५॥ अर्थ-शुकदेवजी बोले हे रंभे ! ( तुमने क्या तुच्छ स्त्रियोंकी बडाई करी ? ) देखिये स्थानस्थानमें ( जगह जगह ) रत्नमय वेदी ( मुनिजनकी बेठनेकी भूमि ) है, तहां वेदीवेदोके ऊपर सिद्ध और गंधर्वांकी सभा रहती है, तहां सभासभामें किन्नरकिन्नरीयोंका गीत ( गायन ) होता है, और गीतगीतमें रामचंद्रजीके गुणानुवाद गाये जाते हैं ॥५॥
रम्भोवाच ॥ पीनस्तनी चन्दनचर्चिताङ्गी
विलोलनेत्रा तरुणी सुशीला ॥ नालिङ्गिता प्रेमभरेण येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ६॥
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अर्थ-रंभा बोली-हे मुने ! जिस नारीके स्तन (कुच) बड़े कठोर हैं, और जिसके शरीरमें चंदनका लेप किया हुआ है, चंचल नेत्रोंवाली और जवान, सुंदर शील ( सुभाव ) वा. ली ऐसी स्त्री जिस मनुष्यने प्रेमसे नहीं आलिंगन ( भुजाओंसे ग्रहण) कि है, उस नरका जीना वृथाही गया ॥ ६॥
शुक उवाच ॥ अचिन्त्यरूपो भगवान्निरञ्जनो
विश्वंभरो ज्ञानमयश्चिदात्मा ॥ विशोधितो येन हदि क्षणं नो
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ७॥ अर्थ-शुकदेवजी बोले-हे रंभे ! सुनो, अचिंत्य ( चिंतन करने अशक्य ) जिसका रूप है, निर्लेप भगवान् है, विश्वभर (विश्वको पालता है), ज्ञानमय चैतन्य ऐसा परमात्मा जिसनें क्षणमात्रभी अपने हृदयसे नहीं देखा, उसका जीवना व्यर्थही गया ७
रम्भोवाच ॥ कामातुरा पूर्णशशाङ्कवका
बिम्बाधरा कोमलनाल गौरा ॥ नान्दोलिता स्वे हृदये भुजाभ्यां
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ८॥
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(८) अर्थ-रंभा बोली-हे मुने ! अत्यंत कामवती, पूर्ण चंद्रमाके समान मुखवाली, कुंदुरुके समान लाल होठोंवाली, कोमल गौर अंगवाली सुंदरी स्त्री जिसने अपने दोनों हाथ पसारके आलिंगन नहीं करी, उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥८॥
शुक उवाच ॥ चतुर्भुजश्चक्रधरो गदायुधः
पीताम्बरः कौस्तुभमालया लसन् ॥ ध्याने धृतो येन न बोधकाले
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ९॥ अर्थ-शुकदेवजी बोले-हे रंभे ! चार भुजाओंवाले, चक्रधारी, गदाधारी, पीतांबर (पीला वस्त्र) धारी, कौस्तुभ रत्नकी मालासे शोभित ऐसे श्रीकृष्ण भगवान् जिसने बोधकालमें स्वस्थ जाग्रत् अवस्थामें ध्यानमें धारण नहीं किये, उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥९॥
रम्मोवाच ॥ विचित्रवेषा नवयौवनाढ्या
लवङ्गकर्परसुवासिदेहा॥ नालिङ्गिता येन दृढं भुजाभ्यां
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ १०॥
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अर्थ-रंभा बोली-हे मुने ! विचित्र वेष ( शृंगार ) धारण करनेवाली, नवीन यौवनसे ( जवानीसे ) युक्त हुई, लौंग कपूर आदिसे सुगंधित शरीरवाली स्त्री, जिसनें भुजाओंकरके अच्छी तरह आलिंगन नहीं कीई, उस नरका जीवना व्यर्थही गया ॥१०॥
शुक उवाच ॥ नारायणः पङ्कजलोचनः प्रभुः
केयूवान कुंडलमंडिताननः॥ भक्त्या स्तुतो येन समाधिना नो॥
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ११ ॥ अर्थ-शुकदेवजी बोले-हे रंभे ! कमलसमान नेत्रोंवाले, बाजूबंदवाले, कुंडलोंसे विभूषित मुखवाले, ऐसे प्रभु नारायण जिसने ध्यान लगाके भक्ति करके स्तुत नहीं किये तिस नरका जीवना वृथा गया ॥ ११ ॥
रम्भोवाच ॥ प्रियंवदा चम्पकहेमवर्णा
हारावलीमंडितनाभिदेशा॥ संभोगशीला रमिता न येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ १२॥
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(१०) अर्थ-रंभा बोली-हे मुने ! प्रिय बोलनेवाली, चंपा और सुवर्णसरीखे वर्णवाली, हारोंकी आवली (पंक्ति) से शोभित नाभिवाली, संभोगसमयमें उत्तम शील ( स्वभाव ) वाली ऐसी स्त्रीके संग जिसने रमण नहीं किया, उस नरका जीवना व्यर्थही गया ॥ १२॥
शुक उवाच ॥ श्रीवत्सलक्ष्म्याङ्कितहृत्प्रदेश
स्ता_ध्वजः शार्ङ्गधरः परात्मा ।। न सेवितो येन नृजन्मनापि
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ १३॥ अर्थ-शुकदेवजी बोले-हे रंभे ! जिनका हृदय श्रीवत्सचिन्हकी शोभासे युक्त है, गरुडकी ध्वजावाले, और शार्ङ्गधनुषको धारण करनेवाले, ऐसे परमात्मा श्रीकृष्ण जिस मनुष्यने सेवन नहीं किये, उस नरका जीवन वृथा चला गया ॥ १३ ॥
रम्भोवाच ॥ चलत्कटी नूपुरमञ्जुघोषा
नासाग्रमुक्ता नयनाभिरामा । न सेविता येन भुजङ्गवेणी
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ १४ ॥
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(११) अर्थ-रंभा बोली-हे मुने! जिसकी कमर हलती है, जिसके चलनेसमय पावमें विछुवे वाजनेका मनोहर शब्द होता है, और नासिकाके अग्रभागमें सुंदर मोती धारण किये हैं, सर्पके आकारसरीखी (वेणी) चोटीवाली, नेत्रोंको आनंदरस देनेवाली, ऐसी स्त्री जिसने सेवन नहीं की ( उससे संभोग न किया), उस नरका जीवना व्यर्थही गया ॥१४॥
शुक उवाच॥ विश्वम्भरो ज्ञानमयः परेशो
जगन्मयोऽनन्तगुणप्रकाशः॥ नाराधितो नापि धृतो न योगे
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ १५॥ अर्थ-शुकदेवजी बोले-हे रंभे! सब जगत्के पालक पोषक, ज्ञानमय, परेश, जगद्रूप अनंत गुणोंको प्रकाशित करनेवाले, ऐसे भगवान्का आराधन ( पूजन ) जिसने नहीं किया और योगैमें ध्यानभी न किया उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥१५॥
रम्भोवाच ॥ ताम्बूलरागैः कुसुमप्रकर्षेः
सुगन्धतैलेन च वासितायाः॥
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(१२) नो मर्दितौ येन कुचौ निशाया
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ १६॥ अर्थ-रंभा बोली-हे मुने ! तांबूल (पान चावने ) की मनोहरतासे, और पुष्पधारणकी अत्यंत शोभासे युक्त, तथा अतर चमेली आदि सुगंधित तैलोंकरके खुशबूदार (सुगंधित ) हुई ऐसी सुंदरी मनोहर स्त्रीकी कुचा मर्दन जिसने रात्रिसमय नहीं की, उस नरका जीवना व्यर्थ हुवा ॥ १६ ॥
शुक उवाच॥ ब्रह्मादिदेवोऽखिलविश्वदेवो
मोक्षप्रदोऽतीतगुणः प्रशान्तः ॥ धृतो न योगेन हृदि स्वकीये
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥१७॥ अर्थ-शुकदेवजी बोले- हे रंभे ! ब्रह्मा आदिकोंका देव, संपूर्ण विश्वका देव अर्थात् प्रकाशक, मोक्ष देनेवाला, सत्व रज आदि गुणोंसे अलग रहा, प्रशांतस्वरूप ऐसा परमात्मा जिसने अपने हृदयमें ध्यानविषे धारण न किया, उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥ १७ ॥
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(१३)
रम्भोवाच ॥ कस्तूरिकाकुङ्कुमचन्दनैश्च
सुचर्चिता याऽगुरुधूपिताम्बरा ॥ उरःस्थले नो लुठिता निशायां __ वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ १८॥
अर्थ-रंभा कहनेलगी-हे मुने ! कस्तूरी केशर चंदन इन्होंका लेप कियेहुए, और अगरकी धूपसे धूप दिये हुए तथा अतर आदिकी खुशबूसे युक्त वस्त्रोंको धारण किये हुए, जो मनोहर सुंदरी नारी है वह जिसनें रात्रिमें अपने हृदयपर नहीं लुटाई (प्यार न किया) उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥ १८ ॥
शुक उवाच ॥ आनन्दरूपो निजबोधरूपो
दिव्यस्वरूपो बहुनामरूपः॥ तपःसमाधौ कलितो न येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ १९ ॥ अर्थ-शुकमुनि बोले-हे रंभे! आनंदरूप, निजबोधरूप (स्वयंप्रकाशक), दिव्य ( अलौकिक ) स्वरूपवाले, बहुत नाम और अनंत रूपवाले, ऐसे भगवान् परमात्मा
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(१४) तपकी समाधिमें जिसनें अनुभव नहीं किये उस नरका जीवना व्यर्थही गया ॥ १९॥
रम्भोवाच ॥ कठोरपीनस्तनभारनम्रा
सुमध्यमा चञ्चलखञ्जनाक्षी॥ हेमन्तकाले रमिता न येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ २० ॥ अर्थ-रंभा कहने लगी-हे मुने ! कठोर भारे स्तन, ( कुचाओं) के भारसे नमी हुई, सुंदरपतली कटीवाली, खंजनपक्षीके नेत्रसमान चंचल नेत्रोंवाली, सुंदरी स्त्रीके संग जिसने हेमन्त ऋतुमें रमण नहीं किया, उस नरका जीवना वृथा गया ॥ २०॥
शुक उवाच ॥ तपोमयो ज्ञानमयो विजन्मा
विद्यामयो योगमयः परात्मा ॥ चित्ते धृतो नो तपसि स्थितेन __ वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ २१ ॥
अर्थ-शुकमुनि बोले-हे रंभे ! तपोमय (सर्व तपमधान ), ज्ञानमय ( सर्व ज्ञानप्रधान ), जन्मरहित, अनंत
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(१५)
शक्तिमान, योगमय परमात्मा जिसने तपमें स्थित होके अपने चित्तमें धारण नहीं किया, उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥२१॥
रम्भोवाच॥ सुलक्षणा मानवती गुणाढ्या
प्रसन्नवक्त्रा मृदुभाषिणी या ॥ नो चुम्बिता येन सुनाभिदेशा
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥२२॥ अर्थ-रंभा बोली-हे मुने ! सर्व सुलक्षणी, मान करनेवाली, सब उत्तम गुणोंवाली, प्रसन्न मुखवाली, कोमल वचन बोलनेवाली, सुंदर गंभीर नाभिवाली, त्रिवलीयुक्त उदरवाली, ऐसी सुंदरी स्त्री जिसने चुंबन नहीं की, ( और उसके संग रमण. नहीं किया ) उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥ २२॥
शुक उवाच ॥ पत्न्यार्जितं सर्वसुखं विनश्वरं
दुःखप्रदं कामिनि भोगसेवितम् ॥ एवं विदित्वा न धृतो हि योगो
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ २३॥
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अर्थ-शुकमुनि बोले-हे कामिनी ! स्त्रीके विषयभोगसे होनेवाले सब सुखोंको अनित्य ( नष्ट होनेवाले) और दुःखदायी जानके, जिसने योगाभ्यास धारण नहीं किया, उस नरका जीवना वृथा गया ॥ २३ ॥
रम्भोवाच ॥ विशालवेणी नयनाभिरामा
कंदर्पसम्पूर्णनिधानरूपा॥ भुक्ता न येनैव वसन्तकाले
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ २४॥ अर्थ-रंभा बोली-बहुत अच्छी वेणी केशबंध ( चोटीपटीआदि) से विभूषित, नेत्रोंको सुख देनेवाली, संपूर्ण शरीरमें कामदेवसे भरी हुई ऐसी सुंदरी स्त्री जिसनें वसंत समयमें नहीं भोगी तिस मनुष्यका जोवना व्यर्थ गया ॥ २४ ॥
शुक उवाच ॥ मायाकरण्डी नरकस्य हण्डी
तपोविखण्डी सुकृतस्य भण्डी ॥ नृणां विखण्डी चिरसविता चे
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ २५ ॥ अर्थ-शुकदेवजी कहते हैं-हे रंभे ! माया ( कपट) की
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(१७) छबड़ी, नरककी हंडी ( पात्र ), तपको नष्ट करनेवाली, पुण्यको क्षीण करनेवाली, मनुष्योंके ( पुरुषार्थ आदिकों) नाश करनेवाली, ऐसी स्त्री जिसने बहुत कालतक सेवन करी उस नरका जीवन व्यर्थ गया ॥२६॥
___ रम्भोवाच ॥ समस्तशृङ्गारविनोदशीला
लीलावती कोकिलकण्ठनाला॥ विलासिता नो नवयौवनाढ्या
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ २६ ॥ अर्थ-रंभा कहने लगी-संपूर्ण शृंगार और विनोद ( हावभाव कटाक्ष आदि ) करनेमें चतुर, लीला ( हास्यक्रीडाआदि ) करनेवाली, कोयलके समान मधुर कंठवाली, नवीन यौवनसे युक्त हुई ऐसी सुंदरी स्त्री जिसने नहीं भोगी, उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥ २६ ॥
शुक उवाच ॥ समाधिहन्त्री जनमोहयित्री
धर्मे कुमन्त्री कपटस्य तन्त्री॥ सत्कर्महन्त्री कलिता च येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ।। २७॥
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(१८) अर्थ-शुकमुनि बोले-हे रंभे ! समाधिको हरनेवाली, मनुष्योंको मोह करानेवाली, धर्ममें कुमंत्री ( धर्म बिगाड़नेवाली), कपट ( छल) को फैलानेवाली, श्रेष्ठ कर्मको हरनेवाली, ऐसी स्त्री जिसनें भोगी, तिस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥ २७॥
रम्भोवाच ॥ बिल्वस्तनी कोमलिता सुशीला
सुगन्धकुन्ता ललिता च गौरा ॥ नाश्लेषिता येन च कण्ठदेशे
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ २८॥ अर्थ-रंभा बोली-हे मुने ! बेलफल (बेलवृक्षके फल) समान गोल कठोर स्तनोंवाली, मृदु शरीरवाली, सुंदर स्वभाववाली, अतर चमेली आदिसे सुगंधित किये हुए वालोंवाली, मनोहर, गौरवर्ण, ऐसी सुंदरी स्त्री गलेकी जगह मिलाके जिसने ग्रहण नहीं की, उस मनुष्यका जीबना व्यर्थही गया ॥ २८ ॥
शुक उवाच ॥ चिन्ताव्यथादुःखमयी सदोषा
संसारपाशा जनमोहकी ॥
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(१९) संतापकोशा भजिता च येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ २९ ॥ अर्थ-शुकमुनि बोले-हे रंभे ! जो चिंता व्यथा दुःखरूप है, दोषयुक्त है, संसारमें फांशीरूप है, मनुष्योंको मोह करनेवाली, संताप देनेकी खजान है, ऐसी स्त्री जिसनें सेवन की है, उस नरका जीवना वृथा वीत गया ॥ २९ ॥
रम्भोवाच ॥ आनन्दकन्दर्पनिधानरूपा
झणत्वणकङ्कणनूपुराढ्या॥ नास्वादिता येन सुधाऽधरस्था
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ३०॥ अर्थ-रंभा बोली-हे मुने ! आनंद और कामदेवसे भरी हुई, झणत्कार शब्द करके हाथोंके कंगण और (पैरोंके ) विछुवोंको बजातीहुई, ऐसी स्त्रीके अधरामृत पानका स्वाद ( ओष्ठचुंबनका स्वाद ) जिसनें नहीं लिया उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥ ३० ॥
शुक उवाच ॥ कापट्यवेषा जनवञ्चिका सा
विण्मूत्रदुर्गन्धदरी दुराशा ॥
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(२०)
संसविता येन सदा मलाढया
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ३१ ॥ अर्थ-शुकमुनि बोले-हे रंभे ! कपट छलका वेष धारण करनेवाली, मनुष्योंको ठगानेवाली, विष्ठा, मूत्र, दुर्गधको (भरी) गुफारूप, और खराब मनोरथवाली, सदा मलिन ऐसी स्त्री जिसनें सेवन करी उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥ ३१ ॥
रम्भोवाच ॥ चन्द्रानना सुन्दरगौरवर्णा
व्यक्तस्तनी भोगविलासदक्षा ।। नान्दोलिता वै शयनेषु येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ।। ३२॥ अर्थ-रंभा बोली-हे मुने! चंद्रमाकेसमान मुखवाली, सुंदर गौरवर्णवाली, प्रकट ( ऊंचे ) स्तनोंवाली (कुचाओंवाली ), भोगविलासमें चतुर, ऐसी सुंदरी स्त्री जिसनें शय्याके ऊपर सुंदर रमण नहीं की, उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥ ३२॥
शुक उवाच ॥ उन्मत्तवेषा मदिरासुमत्ता
पापप्रदा लोकविडम्बिनी या ॥
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(२१) योगच्छला येन विभाजिता च
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ३३ ॥ अर्थ-शुकमुनि बोले-हे रंभे ! जो स्त्री मदोन्मत्त वेषवाली, मदिरा पीनेसे उन्मत्त हुई है, और पाप देनेवाली, तथा लोगोंकी विडंबना करनेवाली, संगमात्रमें छल करती है ऐसी स्त्रीके संग जिसनें रमण किया, उस मनुष्यका जीवन व्यर्थ गया ॥३३॥
रम्भोवाच ॥ आनन्दरूपा तरुणी नताङ्गी
सद्धर्मसंसाधनसृष्टिरूपा॥ कामार्थदा यस्य गृहे न नारी
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ३४ ॥ अर्थ-रंभा बोली-हे मुने ! पुरुषोंको आनंद देनेवाली, जवान अवस्थावाली, (कुचभारसे) नत अंगवाली, (प. तिव्रता आदि ) श्रेष्ठ धर्मको साधनेवाली, और संतान उत्पन्न करनेवाली, काम अर्थको देनेवाली, ऐसी सुंदरी नारी जिसके घरमें नहीं है उस नरका जीवन व्यर्थ गया ॥ ३४ ॥
शुक उवाच ॥ अशौचदेहा पतितस्वभावा
वपुःप्रगल्भा बललोभशीला ॥
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(२२) मृषा वदन्ती कलिता च येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ३५॥ अर्थ-शुकमुनि बोले-हे रंभे ! अपवित्र देहवाली, पतित स्वभाववाली, शरीरसे प्रगल्भा ( भरक्षमताधाष्टर्यता) वाली, बलकर लोभयुक्त स्वभाववाली, झूठ बोलती हुई, ऐसी स्त्री जिसने भोगी, उस नरका जीवना व्यर्थ गया है ॥ ३५॥
रम्भोवाच ॥ क्षामोदरी हंसगतिः प्रमत्ता - सौन्दर्यसौभाग्यवती प्रलोला॥ निष्पीडिता चेन्न रतौ यथेच्छं _वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ३६॥
अर्थ-रंभा बोली-हे मुने ! पतला और त्रिवलीयुक्त उदरवाली, हंससरीखी चालवाली, मदसे भरी हुई, सौंदर्य और सौभाग्यसे युक्त, अत्यंत चपला, ऐसी मनोहर स्त्री जिसने इच्छापूर्वक रमणसमयमें नहीं भोगी है, उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥३६॥
शुक उवाच ॥ संसारसद्भावनभक्तिहीना
चित्तस्य चोरा हृदि निर्दया च ॥
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(२३) विहाय योगं कलिता नरेण
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ३७॥ अर्थ-शुकमुनि बोले-हे रंभे ! संसारमें सद्भाव और ईश्वरकी भक्तिसे हीन, (मनुष्योंके ) चित्तको चोरनेवाली हृदयमें दया नहीं रखनेवाली, ऐसी पापिनी नारी जिसने योगाभ्यास छोड़के आलिंगित की उस नरका जीवन व्यर्थ गया ॥ ३७॥
___ रम्मोवाच ॥ सुगन्धैः सुपुष्पैः सुशय्या सुकान्ता
वसन्तो ऋतुः पूर्णिमापूर्णचन्द्रः॥ यदा नास्ति पुंस्त्वं नरस्य प्रभूतं
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥३८॥ अर्थ-रंभा बोली-जिस नरको पुरुषपना नहीं है तो बहुत उत्तम सुगंधित, सुंदर पुष्पोंकरके शेज बनाई तो उससे क्या है ? सुंदर मनोहर स्त्री है तो क्या है ? वसंतऋतु है क्या भया ? पूर्णिमासीकी रात्रीविषे चंद्रमा खिल रहा है तो क्या भया ? अर्थात् जिसने स्त्रीसंग नहीं किया (उस नरका पुरुषार्थ और ऐश्वर्य वृथा है ) ॥३८॥
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( २४ )
शुक उवाच ॥
सुरूपं शरीरं नवीनं कलत्रं धनं मेरुतुल्यं वचश्चारुचित्रम् ॥ हरेरङ्गियुग्मे मनश्वेदलमं
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ३९ ॥
अर्थ- शुकमुनि बोले- हे रंभे ! जो विष्णु भगवान्के चरणों में मन नहीं लगा तो सुरूप शरीर है तो क्या भया ? नवीन यौबनवती स्त्री है तो क्या ? सुमेरुपर्वतसमान धन है तो क्या ? ast सुंदर विचित्र वाणी है तो उससे क्या भया ? ( कुछभी नहीं बनसका ) ॥ ३९ ॥
इति वेरीनिवासिपंडितवसतिरामशास्त्रिविरचितभाषाटीकार्या रंभाशुकसंवादरूपः शृंगारज्ञाननिर्णयः समाप्तः ।।
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राधाकृष्णसंवादः
भाषाटीका.
का सुन्दरी बल्लववल्लभासु __ त्वचित्तभित्तौ वद शालभञ्जी ।। त्वं मालतीमण्डितकेशपाशे
मञ्चित्तभित्तौ किल शालभञ्जी ॥१॥ अर्थ-राधा कहती है-हे हरे ! आपके चित्तरूपी भीतको ( रोकनेवाली ) शाल (ओट, आवरण)को तोड़नेवाली गोपियोंमें कौनसी सुंदरी गोपी है ? श्रीकृष्ण बोले हे राधे ! मालतीपुष्पोंसे विभूषित गुंथे हुए केशोंवाली तुम मेरे चित्तरूपी मनकी मर्यादाको ( आड़को) तोरनेवाली हो. यहां सबही श्लोकोंमें राधाजीका प्रश्न और श्रीकृष्णजीका उत्तर समझना॥२॥ पुरातनस्यापि च निर्जरत्वे
को नाम हेतुर्वद सत्यमेव ॥ १ प्राकारो वरणः शालः प्राचीनं प्रान्ततो वृतिरित्यमरः ।
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( २६ )
लावण्यधन्ये वृषभानुकन्ये तवाऽधरोत्थाऽमृतपानमेव ॥ २ ॥
अर्थ - हे हरे ! आप पुरातन होकेभी तुम वृद्ध क्यों न भये यहां प्रत्यक्ष क्या हेतु है सत्य कहो ? शृंगारशोभासे युक्त रहनेवाली हे वृषभानुकन्ये ! ( इसमें ) तुम्हारा अधरामृत पान हेतु है ( इससे अजर हूं ) ॥ २ ॥ पयोधरे विद्युदभून्मुरारे पयोधरो विद्युति नैव दृष्टः ॥ राधे स्थितायां त्वयि विद्युतीह पयोधरद्वन्द्वमिदं व्यलोकि ॥ ३ ॥
अर्थ – हे मुरारे ! ( पयोधर ) मेघमें बिजली होती है, विजलीमें तो मेघ कहीं नहीं देखा ? हे राधे ! स्थित हुई वि जलरूप तुमारेविषे यह पयोधरयुग्म ( कुचयुग्म ) दीखता है ! ॥ ३ ॥
दातुं शरीरं परपुरुषाय नैवोत्सहेऽहं नरकादिभेमि ॥ दत्ते शरीरे नरकस्य हन्त्रे
का नाम भीतिर्नरकाद्भवत्याः ॥ ४ ॥
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( २७ )
अर्थ - हे मुरारे ! मैं परपुरुषके वास्ते अपने शरीरको नहीं
दिया चाहती, नरकसे डरती हूं - हे राधे ! नरकके नाश करनेवालेके अर्थ शरीर देनेसे क्या डर है ? ॥ ४ ॥
त्वां बलवीजारमहर्निशं या सीमन्तिनी गायति किं फलं सा ॥ प्राप्नोति राधे व्यभिचारदोषाद्विमुच्यतेऽसौ भवनागपाशात् ॥ ५ ॥
अर्थ- गोपियों में जार तुमको जो स्त्री रातदिन गाती है ( याद करती है ) वह क्या फल लेती है ? हे राधे ! वह व्यभिचारदोषसे और संसाररूपी नागपाश से छूटती है ॥ ५ ॥
निशावसाने तव विप्रयोगात् प्राणा मदीया विकलीभवन्ति ॥ राधे वद प्राणपतेर्वियोगे
प्राणाः कथं नो विकलीभवेयुः ॥ ६ ॥
अर्थ - हे हरे ! रात्रीके अंतमें तुम्हारे वियोग होनेविषे मेर प्राण विकल होते हैं ? हे राधे ! प्राणपतिके वियोग में प्राण विकल क्यों न होवें ? ॥ ६ ॥
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(२८) निर्मासि चित्ते व्रजसुन्दरीणां
कामं विभो लोचनगोचरस्त्वम् ॥ किमत्र चित्रं तव भाति चित्ते
कामस्य राधे जनकोऽहमास्मि ॥७॥ अर्थ-हे विभो ! तुम बजकी सुंदरियोंके नेत्रों आगे दर्शन देके उनके चित्तमें कामदेवकों उत्पन्न करतेहो? हे राधे ! वहां इस वातमें तुझे क्या विचित्र मालूम होताहै ? मैं कामका ( प्रद्युम्न का ) जनक (पिता) हूं ॥ ७॥ जना जगत्या जगदीश शश्व
त्त्वां राधिकाजारमुदाहरन्ति ॥ निन्दन्तु लोका यदि वा स्तुवन्तु
प्राणेश्वरीं त्वां न परित्यजामि ॥ ८॥ अर्थ-हे जगदीश ! पृथ्वीपर निरंतर सब लोग तुमको राधिकाविषे जार बताते हैं? लोक चाहे निंदा करो वा स्तुति करो, परंतु प्राणेश्वरि ! तुमको नहीं त्यागूंगा ॥८॥ कलानिधि गोकुलराजमानं श्यामाप्रियं त्वा विधुमेव मन्ये॥
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(२९) त्वदुक्तरीत्या विधुशब्दवाच्यं
राधाधवं मां न कथं ब्रवीषि ॥९॥ अर्थ-कलानिधि, गोकुलमें विराजमान, श्यामा (राधिका ) के प्रिय ऐसे तुमकोही मैं चंद्रमा मानती हूं-हे राधे ! तुम्हारी कही हुई रीतिसे चंद्रशब्दवाच्य राधापति मुजको (राधापति श्रीकृष्णचंद्र ) ऐसे क्यों न कहतीहो ॥ ९ ॥
भक्तिर्मया सा कतमा विधेया __ यया प्रसादो भवतो मुरारे॥ मम प्रसादाय विधेहि राधे __भक्तिं परामात्मनिवेदनाख्याम् ॥ १०॥
अर्थ--हे मुरारे ! जिससे आप प्रसन्न हो वह कौनसी भक्ति मैनें करनी चाहिये ? हे राधे ! मेरी प्रसन्नताके वास्ते आत्मा निवेदनाख्य ( अपने शरीरको मेरे अर्थ समर्पण करनेकी ) परम भक्ति करो ॥ १० ॥ विधि समुल्लङ्घय पराङ्गनासु
प्रसङ्गमङ्गीकुरुषे कथं नु । विधेर्विधातुर्विधिलङ्घने मे
का नाम भीतिर्भण भामिनीह ॥ ११ ॥
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-हे हरे ! आप विधिको उल्लंघके ( मर्यादाको मेटके) पराई स्त्रियोंके प्रसंगको कैसे अंगीकार करतेहो ? हे भामिनि ! विधाताकाभी विधाता ( रचनेवाले) मेरे विधाताकी विधि मेटनेमें क्या भीति है कहो // 11 // उदीर्यमाणेऽपि च सान्त्ववादे मानापनोदो नहि राधिकायाः॥ मानोऽस्तु ते यद्यपराधिकः स्यां स्वप्नेऽपि नैवास्म्यपराधिकोऽहम् // 12 // अर्थ--हे हरे ! सांत्ववाद ( शांतिपूर्वक कहने सुननेसेभी ) राधाका मान ( गरूर) गुस्सा दूर नहीं हुआ है. हे राधे ! जो मैं अपराधिक अर्थात् अपराधवाला ( द्वितीय पक्षे राधासे रहित ) होउं तो तुम्हारे मान हो सो मैं मुपनामेंभी अपराधिक नहीं होताहूं // 12 // मुक्तिं समीयुभवभीतिभाजो भवत्पदाम्भोजरजो जुषन्तः॥ बद्धस्त्वयाऽहं भुजवल्लरीभ्या राधे निकुञ्ज मधुमाधवीनाम् // 13 // For Private and Personal Use Only