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(४) अर्थ-रंभा कहती है-(हे मुनि ! आप दृष्टि पसारके देखिये-) मार्गमार्गमें (चहूँ तरफ) नवीन आमोंके वाग (बगीचे) हैं, फिर (तिनमें ) बागवागमें कोयलोंका बहुत उत्तम कूजन शब्द हो रहा है, (तिन कोयलोंके ) शब्दशब्दमें स्त्रियोंका मानभंग होता है, अर्थात् अपने वचनसे प्रिय वचन सुनके वा याहास्तीसे मानभंग होता है फिर मानभंग होनेमें कामदेव अपने पांच बाणोंसहित प्रकट होताहै ॥ १॥
शुक उवाच ॥ मार्गे मार्गे जायते साधुसङ्गः
सङ्गे सङ्गे श्रूयते कृष्णकीर्तिः॥ कीर्ती कीर्ती नस्तदाकारवृत्ति
वृत्तौ वृत्तौ सच्चिदानन्दभासः ॥२॥ अर्थ-(रंभाका भाषण श्रवण कर शुकदेवजी बोले- ) हे कामिनि ! मार्गमार्गमें तो साधुजनोंका संग हो जाता है, तहां संगसंगमें श्रीकृष्णचंद्रजीका यश सुना जाता है, तिस यश (कीर्तिकीर्ति ) में हमारी तदाकार लवलीन वृत्ति (चित्तको एकाग्रता ) होती हैं, तिस एकाग्रता वृत्तिवृत्तिमें सचिदानंदका आभास होता है, अर्थात् परमानंदकी प्राप्ति होती है ॥२॥
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