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(११) अर्थ-रंभा बोली-हे मुने! जिसकी कमर हलती है, जिसके चलनेसमय पावमें विछुवे वाजनेका मनोहर शब्द होता है, और नासिकाके अग्रभागमें सुंदर मोती धारण किये हैं, सर्पके आकारसरीखी (वेणी) चोटीवाली, नेत्रोंको आनंदरस देनेवाली, ऐसी स्त्री जिसने सेवन नहीं की ( उससे संभोग न किया), उस नरका जीवना व्यर्थही गया ॥१४॥
शुक उवाच॥ विश्वम्भरो ज्ञानमयः परेशो
जगन्मयोऽनन्तगुणप्रकाशः॥ नाराधितो नापि धृतो न योगे
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ १५॥ अर्थ-शुकदेवजी बोले-हे रंभे! सब जगत्के पालक पोषक, ज्ञानमय, परेश, जगद्रूप अनंत गुणोंको प्रकाशित करनेवाले, ऐसे भगवान्का आराधन ( पूजन ) जिसने नहीं किया और योगैमें ध्यानभी न किया उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥१५॥
रम्भोवाच ॥ ताम्बूलरागैः कुसुमप्रकर्षेः
सुगन्धतैलेन च वासितायाः॥
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