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(१०) अर्थ-रंभा बोली-हे मुने ! प्रिय बोलनेवाली, चंपा और सुवर्णसरीखे वर्णवाली, हारोंकी आवली (पंक्ति) से शोभित नाभिवाली, संभोगसमयमें उत्तम शील ( स्वभाव ) वाली ऐसी स्त्रीके संग जिसने रमण नहीं किया, उस नरका जीवना व्यर्थही गया ॥ १२॥
शुक उवाच ॥ श्रीवत्सलक्ष्म्याङ्कितहृत्प्रदेश
स्ता_ध्वजः शार्ङ्गधरः परात्मा ।। न सेवितो येन नृजन्मनापि
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ १३॥ अर्थ-शुकदेवजी बोले-हे रंभे ! जिनका हृदय श्रीवत्सचिन्हकी शोभासे युक्त है, गरुडकी ध्वजावाले, और शार्ङ्गधनुषको धारण करनेवाले, ऐसे परमात्मा श्रीकृष्ण जिस मनुष्यने सेवन नहीं किये, उस नरका जीवन वृथा चला गया ॥ १३ ॥
रम्भोवाच ॥ चलत्कटी नूपुरमञ्जुघोषा
नासाग्रमुक्ता नयनाभिरामा । न सेविता येन भुजङ्गवेणी
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ १४ ॥
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