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दो मछलियोंकी तरह दीखते हैं, तिन नेत्रोंके ऊपर कामदेवका प्रचार होता है ॥४॥
शुक उवाच ॥ स्थाने स्थाने दृश्यते रत्नवेदि
वैद्यां वेद्या सिद्धगन्धर्वगोष्ठी ॥ गोष्ठयां गोष्ठयां किन्नरद्वन्द्वगीतं ।
गीते गीते गीयते रामचन्द्रः ॥ ५॥ अर्थ-शुकदेवजी बोले हे रंभे ! ( तुमने क्या तुच्छ स्त्रियोंकी बडाई करी ? ) देखिये स्थानस्थानमें ( जगह जगह ) रत्नमय वेदी ( मुनिजनकी बेठनेकी भूमि ) है, तहां वेदीवेदोके ऊपर सिद्ध और गंधर्वांकी सभा रहती है, तहां सभासभामें किन्नरकिन्नरीयोंका गीत ( गायन ) होता है, और गीतगीतमें रामचंद्रजीके गुणानुवाद गाये जाते हैं ॥५॥
रम्भोवाच ॥ पीनस्तनी चन्दनचर्चिताङ्गी
विलोलनेत्रा तरुणी सुशीला ॥ नालिङ्गिता प्रेमभरेण येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ६॥
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