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(१९) संतापकोशा भजिता च येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ २९ ॥ अर्थ-शुकमुनि बोले-हे रंभे ! जो चिंता व्यथा दुःखरूप है, दोषयुक्त है, संसारमें फांशीरूप है, मनुष्योंको मोह करनेवाली, संताप देनेकी खजान है, ऐसी स्त्री जिसनें सेवन की है, उस नरका जीवना वृथा वीत गया ॥ २९ ॥
रम्भोवाच ॥ आनन्दकन्दर्पनिधानरूपा
झणत्वणकङ्कणनूपुराढ्या॥ नास्वादिता येन सुधाऽधरस्था
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ३०॥ अर्थ-रंभा बोली-हे मुने ! आनंद और कामदेवसे भरी हुई, झणत्कार शब्द करके हाथोंके कंगण और (पैरोंके ) विछुवोंको बजातीहुई, ऐसी स्त्रीके अधरामृत पानका स्वाद ( ओष्ठचुंबनका स्वाद ) जिसनें नहीं लिया उस नरका जीवना व्यर्थ गया ॥ ३० ॥
शुक उवाच ॥ कापट्यवेषा जनवञ्चिका सा
विण्मूत्रदुर्गन्धदरी दुराशा ॥
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