Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 1 Author(s): Kasturchand Kasliwal Publisher: Ramchandra Khinduka View full book textPage 4
________________ -श्राशताब्दी को तो बहुत ही कम प्रतियां हैं। इससे मालूम होता है कि भण्डार का कार्य १८ वी शताब्दी तक तो सुचारू रूप से चलता रहा किन्तु शेष दो शताब्दियों में नवीन कार्य प्रायः बन्द सा होगया। शास्त्रों की प्राचीन प्रतियों में विद्वानों को साहित्य और इतिहास के अनुसंधान में काफी सहायता मिल सकेगी। विवादग्रस्त कवियों के समय आदि को समस्या को सुलझाने में प्रस्तुत सूची बहुत सहायक होगी ऐसी आशा है। श्री महावीर शास्त्र भण्डार' श्री महावीरजी, उतना अधिक पुराना नहीं है । इस भण्डार में प्राचीन प्रतियां प्रायः जयपुर, आमेर या अन्य शास्त्र भण्डारों से गयी हुई मालूम होती हैं। यहाँ १६ वी तथा २० वीं शताब्दी की जो प्रतियां हैं वे यहीं पर लिखी हुई है। उक्त भण्डार में अधिकतर पूजा साहित्य तथा स्तोत्र संग्रह है। उक्त दोनों भण्डारों में ही जैनेतर साहित्य भी पर्याप्त रूप में है। हिन्दी भाषा की अपेक्षा संस्कृत भाषा का अधिक साहित्य है। उपनिषदों से लेकर न्याय, साहित्य, व्याकरण, आयुर्वेद और ज्योतिष माहित्य का भी अच्छा संग्रह है । कितनी ही प्रतियां तो प्राचीन हैं 1 इस संग्रह से जैन विद्वानों की उदारता का पता लगाया जा सकता है। श्रो महाबीर अतिशय क्षेत्र कमेटी को बहुत से दिनों से अनुसंधान विभाग खोलने की इच्छा थी। पद्याय क्षेत्र की ओर से समय २ पर थोडा बहुत अन्य प्रकाशन का काम होता रहा है लेकिन व्यवस्थित रूप से लगभग २। वर्ष से अनुसंधान का काम चल रहा है। इस अनुसंधान के फल स्वरूप आमेर शास्त्र भएद्वार, अयपुर तथा श्री महावीर शास्त्र रडार, महावीरजी का विस्तृत सूचीपत्र पाठकों के सामने है। इस सूचीपत्र के अतिरिक्त प्रामर भण्डार प्रशारत-संग्रह प्रेस में दिया जा चुका है जो शीघ्र ही पाठकों के सामने आने वाला है । प्राचीन माहित्य के खोज का कार्य चल रहा है। अज्ञात और महत्त्वपूर्ण रचनायें प्रकाशित होकर समय २ पर समाज के सामने आती रहेंगी । ___प्राचीन साहित्य की खोज करने का मेरा प्रथम अवसर है, इसलिये बहुत सी वटियों तथा कमियों का रहना संभव है। लेकिन मुझे प्राशा है कि विद्वान पाठक इनकी ओर उदारता पूर्वक ध्यान देकर मुझे सूचित करने की कृपा करेंगे। श्री महावीर अतिशय क्षेत्र कमेटी तथा विशेषतः श्रीमान माननीय मन्त्री महोदय धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने इस अनुसंधान के कार्य को प्रारम्भ करके अपनी साहित्य-प्रियता का परिचय दिया है तथा अन्य तीर्थ क्षेत्र कमेटियों के सामने साहित्य सेवा का श्रादश उपस्थित किया है। श्रद्धय गुरुवर्य पंडित चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ को तो धन्यवाद देना सूर्य को दीपक दिखाना है-जो कुछ मैं हूँ सब उन्हीं कृपा का फल है। जयपुर, दिनाङ्क १५ मई सन् १६४६ कस्तूरचन्द कासलीवालPage Navigation
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