Book Title: Pundit Puja Author(s): Gyanand Swami Publisher: Bramhanand Ashram View full book textPage 9
________________ सबकी शरण में है मरण, निज आत्मा तारण तरण। शान्ति की सरिता प्रवाहित, आज लो उसकी शरण ।। ज्ञान की ज्योति जलाकर, ज्ञानमय तन्मय करो। ज्ञान ही भगवान है, करो उसका अनुसरण ।। इस प्रकार ज्ञानी अपने परमात्म स्वरुप का आश्रय, उसी की साधना - आराधना, ज्ञान, ध्यान करता है, जिससे सिद्ध पद मुक्ति होती है। यही अध्यात्म ज्ञान मार्ग में पूजा का विधि विधान है। प्रश्न - जिसकी बाहर में कोई क्रिया रूप दिखाई नदे - ऐसी पूजा का महत्व क्या है, और इस पूजा से लाभ क्या है? इसके समाधान में सद्गुरु आगेगाथा कहते हैं.......... गाथा (४) हियंकारं न्यान उत्पन्न, उर्वकारं च विन्दते। अरहं सर्वन्य उक्तं च, अचष्य दरसन दिस्टते॥४॥ अन्वयार्थ - (ह्रियंकारं) तीर्थंकर, सर्वज्ञ अरिहन्त परमात्मा का (न्यान) ज्ञान (उत्पन्न) पैदा होता है , (उर्वकारं) पंच परमेष्ठी मयी सिद्ध परमात्म स्वरुप और (विन्दते) अनुभव करने, अनुभूति होने से (अरहसर्वज्ञ) अरहन्त सर्वज्ञ परमात्माने (उक्तं) कहा है (च) और (अचष्य दरसन) अन्तर चक्षु दर्शन, दिव्य दृष्टि (दिस्टते) देखते हैं। विशेषार्थ - वीतरागी अरिहन्त सर्वज्ञ परमात्मा ने कहा है कि निज शुद्धात्म स्वरुप शुद्ध चिदानन्दमयी निर्विकार है। जो जीव मन, वचन, काय और कर्म आदि विकारों से रहित निज स्वभाव को मन और इन्द्रियों से दूर होकर अन्तर चक्षु द्रव्य दृष्टि से देखते हैं. तथा ओंकारमयी शुद्ध समयसार निजशुद्धात्म स्वरुप का अनुभवन करते हैं, उनको अपने परमात्म स्वरुपका महिमामयी परमज्ञान उत्पन्न हो जाता है। परमतत्व का ज्ञान होना महान सौभाग्य की बात है, जिसे अपने परमात्म स्वरुप का संशय, विभ्रम विमोह रहित ज्ञान हो जाता है वही ज्ञानी है। (१) जीव अपने स्वरुप को भूल गया है, इस अज्ञान का नाश ज्ञान मिलने से होता है। [13] (२) ज्ञान की प्राप्ति ज्ञानी सद्गुरुओं के सत्संग से होती है, इसके लिये लोक मूढ़ता समाज सम्प्रदाय के बंधनों को तोड़ना आवश्यक है। (३) जो ज्ञान प्राप्ति की इच्छा करता है उसे सद्गुरु - जिनवाणी के अनुसार चलना चाहिये। अपनी इच्छा से चलता हुआ जीव अनादि काल से भटक रहा है। (४) दृढ़ संकल्पशक्ति - ज्ञान प्राप्ति की तीव्र लगन और मुमुक्षुता होना आवश्यक है। अध्यात्म दृष्टि - भेदज्ञान का निरन्तर अभ्यास करना चाहिए। (५) निर्मल अन्तःकरण से आत्मा का विचार, सामायिक, ध्यान करना। (६) दूसरा कुछ न कर मात्र निज शुद्धात्म स्वरुप का चिन्तन मनन करते रहना। इस गुप्त तत्व का जो आराधन करता है वह प्रत्यक्ष अमृत प्राप्त करके अभय हो जाता है। "आत्मा ज्ञान स्वभावी प्रभु है" ऐसा जिसके ज्ञान में आया, वह ज्ञानी जीव जीवन में स्थिर हो जाता है, यह प्रत्याख्यान है। जहाँ ज्ञान, ज्ञान में स्थिर हुआ, वहां विशेष आनन्द की धारा बहती है। जिसे भगवान की वाणी में प्ररुपित तत्व हृदयंगम हुआ, उसे यह शंका नहीं रहती है कि कौन - कैसा क्या है। उसे यह निशंक निर्णय हो जाता है कि मैं भगवान हूँ- भगवान स्वरुप हूँ व अल्पकाल में परमात्मा होने वाला हूँ। ऐसा दृढ़ निर्णय हो जाता है। ज्ञानी की दृष्टि तो संसार से छूटने की है। अतः वह राग रहित निवृत स्वभाव की मुख्य भावना व आदर में सावधानी से प्रवृति करता है। अशरीरी सिद्ध परमात्मा के समान मैं भी अशरीरी पूर्ण शुद्ध परमात्मा हूँ ऐसा दृढ़ निश्चय श्रद्धान परम तत्व का ज्ञान है। ज्ञानी अंतर चक्षुद्रव्य दृष्टि से हमेशा स्वरुपको देखता है। ज्ञानी को पर द्रव्य की क्रिया करने का विचार तो होता ही नहीं है बल्कि उसे अपनी पर्याय में अशुभ भाव को शुभ करने का अभिप्राय भी नहीं रहता। आत्मा ज्ञायक रूप से रहे एक यही अभिप्राय रहता है, ऐसे निर्णय [14]Page Navigation
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