Book Title: Pundit Puja
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 45
________________ ही लिखा पढ़ा हो सब शास्त्र याद हों, तो भी व्यर्थ है- और एक अपना ज्ञायक स्वभाव पकड़ में आ गया तो सब कुछ जान समझ लिया। अन्य कुछ आये या न आये, लिखना भी न आये, कुछ याद भी न रहे, उससे क्या प्रयोजन है ? बस"तष मास भिन्नम" अनभव में आ जाये. वह केवलज्ञानी बनकर मुक्ति पाता है। इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चेतन तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं हैं बस ऐसा अनुभव प्रमाण जानने में आ जाये, निर्णय हो जाये, तो सब कुछ जान लिया,ज्ञानी हो गये। यदि करोड़ों श्लोक धारणा में लिए परन्तु अन्तर में निज शुद्धात्म स्वरुप अनुभव में नहीं आया,तो वह सारा ज्ञान, सब मन रंजन कराने वाला दुर्गति का पात्र बनाता है। इसलिए किसी विकल्प में न पड़कर मात्र आत्मा को अपने चेतन स्वभाव को जानने का प्रयत्न करना ही तत्व जिज्ञासु होना है और इसी से अपना भला होगा। प्रश्न - यह बात तो समझ में आती है जब आत्मा की चर्चा सुनते हैं तो बड़ा आनन्द आता है पर अभी पूरी तरह से पकड़ में नहीं आ रही इसके लिए क्या करें ? इसके समाधान में सदगुरू तारण स्वामी आगेगाथा कहते हैं गाथा (३१) मिथ्या तिक्त त्रितियं च, कुन्यानं त्रिति तिक्तयं। सुद्ध भाव सुद्ध समयं च, साधं भव्य लोकय ॥३१॥ अन्वयार्थ - (मिथ्या) मिथ्यात्व,मिथ्या मान्यता (तिक्त) छोड़ो त्याग करो (त्रितिय) तीनों प्रकार की (च) और (कुन्यानं) कुज्ञान विपरीत ज्ञान (त्रिति) तीन तरह का (तिक्तयं) छोड़ दो, (सुद्ध भाव) शुद्ध भाव (सुद्ध समय) शुद्धात्मा (च) और (सार्ध) साधना, श्रद्धा करो (भव्य लोकयं) हे भव्य जीवो। विशेषार्थ - सद्गुरु तारण-स्वामी कहते हैं, कि हे भव्य जीवो ! तीन मिथ्यात्व-सम्यक् मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व यह तीन मिथ्या मान्यतायें छोड़ दो अर्थात(१) यह शरीर ही मैं हैं! (२) यह शरीरादि मेरे हैं! (३) मैं इन सबका कर्ता हूँ! __यह मान्यतायें छोड़ दो, और तीन कुज्ञान-कुमति, कुश्रति, कुअवधि यह भी छोड़ दो, अर्थात् यह झूठा ज्ञान कि(१) पर से मेरा भला बुराया सुख दुःख होता है या मैं किसी का भला बुरा कर सकता हूँ, किसी को सुख दुःख दे सकता हूँ। (२) किसी कुदेव, अदेवादि देवी देवताओं की मान्यता पूजा भक्ति करने से मेरा भला बुरा होगा। (३) संसारी व्यवहार दया दानादि से मेरा पर भव सुधर जायेगा मुक्ति होगी- यह लोक मूढ़ता-देव-मूढ़ता-पाखंड मूढ़तायें सब छोड़ दो। अपनेशुद्ध भाव और शुद्धात्मा की श्रद्धा साधना करो, इसी से आत्मानुभूति-और अपना भला होगा। केवली भगवान की दिव्य ध्वनि में सम्पूर्ण रहस्य एक साथ प्रगट होता है। श्रोता के समझने की जितनी योग्यता हो, उतना समझ में आता है। भगवान भी किसी को समझा नहीं सकते, बदल नहीं सकते। भगवान स्वयं की पर्याय को एक समय के लिये भीआगे पीछे नहीं कर सकते, टाल फेर नहीं सकते, फिर पर का क्या कर सकते हैं? उन्होंने तो वस्तु स्वरूपसत्यधर्म का मार्ग बताया है और स्वयं आत्मा से परमात्मा बने हैं। अपने जैसे संसारी से सिद्ध हये हैं, इसलिये उनकी वाणी प्रमाण है, तथा वह भी प्रमाण और पूज्य हैं। पर कब ? जब हम उनकी बात मानकर उस मार्ग पर चलें उन जैसे हम भी बनें यही उनकी सच्ची उपासना पूजा भक्ति है। ___ आत्म स्वभाव को लक्षगत कर उसी में एकाग्र होना ही ज्ञान की महिमा है। नैतिकता, उत्तम कुल, धन सम्पन्नता, निरोग शरीर, दीर्घ आयु ये सभी पाकर भी अन्तर में उत्तम सरल स्वभाव को पाना दुर्लभ है। जिसने अपनेआत्म स्वभाव को पहचान लिया उसका जीवन सार्थक और सफल है। परिणाम में तीव्र वक्रता हो-महासंक्लिष्ट परिणाम हों, क्रोधमान माया लोभ की तीव्रता हो, वह तो धर्म की ओर उन्मुख होता ही नहीं है। उसे धर्म [86] [85]


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