Book Title: Pundit Puja
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 44
________________ करो, यही एक मात्र मुक्ति का शुद्ध कारण है। दया, दानादि के होने वाले परिणाम आसव हैं- धर्म नहीं, ऐसा जानो। जो बाह्य तपश्चर्या करते हैं, अभिग्रह करते हैं, जो केवल क्रिया कांड करते हैं, वे गुणवन्त नहीं हैं। जो आनन्द स्वभाव की खोज करते हैं उसकी साधना करते हैं, वे गुणवन्त सन्त हैं। आत्मा शुद्ध चिदानन्द मूर्ति है, उसकी रुचिकर, और राग तथा व्यवहार की रुचि छोड़ने पर जिस क्षण आत्मा के आनन्द का अनुभव होता है, वही निश्चय रत्नत्रय है। इष्टता अनिष्टता ज्ञान में नहीं है। वैसे ही कोई ज्ञेय भी इष्ट अनिष्ट नहीं हैं। यह चित्त के संग रहित, ज्ञान व आनन्द परिणति की बात है। द्रव्यमन के संग पूर्वक दया दानादि की विषय कषाय की वृत्ति उठना ही बंध का कारण है। आत्मा का संग तो बंध के अभाव का कारण है। मैं ज्ञानानन्द हूँ ऐसे अन्तर स्वभाव के संसर्ग से शुद्धोपयोग होता है। शुद्धोपयोग साधन है व उसका कार्य साध्य- परमात्म तत्व है। दया दान अथवा भगवान के संग से शुद्धोपयोग नहीं होता। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ करता तो नहीं, परन्तु स्पर्श भी नहीं करता । प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है । प्रत्येक द्रव्य की पर्याय क्रमवद्ध होती है। आत्मा मात्र ज्ञायक परमानन्द स्वरुप है, यह भगवान सर्वज्ञ देव की दिव्य ध्वनि में आया है। सर्वज्ञ परमात्मा, जिनेन्द्र देव ने जिस आत्मा को ध्रुव कहा है, उसका जो जीव अवलम्बन ले, उसे उस ध्रुव स्वभाव में से शुद्धता प्रगट होती है। उसको ही आत्मा शुद्ध रूप से उल्लसित हुई, ऐसा कहने में आता है। जैसे अनादि अज्ञानवश " पुण्य पाप भाव रूप मैं हूँ ऐसी मान्यता यही मिथ्यात्व दुःख का अनुभव है। तीन काल-तीन लोक में शुद्ध निश्चय नय से सच्चिदानन्द आनन्द कन्द भगवान आत्मा मैं हूँ। ऐसा हूँ, ऐसी दृष्टि ही आत्म भावना है। मैं ऐसा हूँ और सब जीव भी भगवन्त स्वरूप हैं। द्रव्य दृष्टि से वस्तु स्वरुप जानना स्व-पर का यथार्थ निर्णय होना, निज शुद्धात्मा का अनुभव होना इसका नाम सम्यग्दर्शन ज्ञान है और उसमें स्थिर होना चारित्र है। इस प्रकार मन वचन [83] काय, कृत कारित अनुमोदना से निरन्तर यह भावना भाना ही परमात्म स्वरूप की उपलब्धि का मूल आधार है। देह की स्थिति तो मर्यादित है ही, कर्म की स्थिति भी मर्यादित है और विकार की स्थिति भी मर्यादित है। स्वयं की पर्याय में जो कार्य होता है वह भी मर्यादित है। ज्ञान स्वभाव त्रिकाली ध्रुव स्वभाव की मर्यादा नहीं है। धर्मी की दृष्टि उस अमर्यादित स्वभाव पर होती है। निज वस्तु अखंड आनन्द कन्द चैतन्य है, इसका जिसको भान है, वही धर्मी है। वही सच्चे देव, गुरु, शास्त्र का उपासक है। सम्यकदृष्टि तो जीव, अजीव, आश्रव, बंध आदि के स्वांगों को देखने वाले हैं। रागादि आसव बंध के परिणाम होते हैं, पर सम्यग्दृष्टि उन स्वांगों के देखने वाले ज्ञाता दृष्टा हैं। कर्ता नहीं है। शुभाशुभ भाव आते हैं पर सम्यग्दृष्टि उन्हें कर्म कृत स्वांग जानकर, उनमें मगन नहीं होते, वे अपने शान्त रस में मगन रहते हैं। मिध्यादृष्टि - जीव अजीव के भेद को नहीं जानते, जिससे वे कर्म कृत स्वांगों को ही सत्य (निज रूप) जानकर उनमें मगन हो जाते हैं। रागादि भावों कर्म कृत होने पर भी अपने भाव जानकर उनमें लीन रहते हैं। जिनवाणी - ऐसे अज्ञानी जीवों को आत्मा का यथार्थ स्वरुप बतलाकर उनका भ्रम निवारण कर भेदज्ञान कराती है । ज्ञायक, ध्रुव, शुद्ध तत्व, उसका ज्ञानकर, उसकी प्रतीति कर, उसमें रमणकर, यही महान और अपूर्व पुरुषार्थ है । भगवान की वाणी श्रुत है, शास्त्र है। शास्त्र ज्ञान उपाधि है, पर लक्षी ज्ञान है, तब तक स्व को नहीं जान सकता। निराकुल ज्ञायक ध्रुव तत्व शुद्ध चैतन्य अनुभव करने का प्रबल पुरुषार्थ करना ही इष्ट हितकारी है। प्रश्न- हम लोग ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं। तत्व आदि को न याद कर सकते, न विशेष समझ सकते, ऐसे में क्या करें, फिर हमारा क्या होगा? समाधान लिखना पढ़ना आता है या नहीं आता, बुद्धि का क्षयोपशम है या नहीं, इससे धर्म का ज्ञान मार्ग का कोई संबंध नहीं है। मैं ध्रुव स्वभावी शुद्धात्म तत्व जीव आत्मा शुद्ध चैतन्य हूँ। यह समझ में आता है, तो सब समझ में आ गया। यदि अपने स्वरूप का भान नहीं होता, तो बाहर में कितना [84]

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