Book Title: Pundit Puja
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 42
________________ को जाने बिना धर्म होता ही नहीं है, फिर प्रतिमा या साधुपना कैसे होगा? सबसे प्रथम तो सम्यक् दर्शन का उपाय करना चाहिए। जिनवाणी में मोक्षमार्ग का कथन दो प्रकार से है, अखंड आत्म स्वभाव के अवलम्बन से सम्यकदर्शन,ज्ञान, चारित्र रुप मोक्ष मार्ग प्रगट हुआ, वह सच्चा मोक्षमार्ग है और उस भूमिका में जो महाव्रतादि का राग विकल्प है, वह मोक्ष मार्ग नहीं है किन्तु उसे उपचार से साधन रुपमोक्ष मार्ग कहा है। आत्मा में वीतराग शुद्धि रुप जो निश्चय मोक्ष मार्ग प्रगट हुआ, वह सच्चा अनुपचार शुद्ध उपादान एवं यथार्थ मोक्षमार्ग है, और उस काल वर्तते हुये,मुनि श्रावक आदि के शुभ राग को वह सहचर तथा निमित्त होने से मोक्ष मार्ग कहना वह उपचार है, व्यवहार है। जैन धर्म की महत्ता यह है कि मोक्ष के कारण भूत सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्रादिशुद्ध भावों की प्राप्ति उसी में होती है,उसी से जैन धर्म की श्रेष्ठता इसलिये हे जीव ! ऐसेशुद्ध भाव व्दारा ही जैन धर्म की महिमा जानकर तू उसे अंगीकार कर और राग को अथवा पुण्य को धर्म मतमान। भव भ्रमण का अन्त लाने का सच्चा उपाय,पारमार्थिक आत्मा तथा सम्यक्दर्शनादि के स्वरुप का निर्णय करके स्वानुभव करना वह मार्ग है, अनुभव में विशेष लीनता वह श्रावकपना,और उससे भी विशेष स्वरुप रमणता वह मुनिपना है। अध्यात्म में सदा निश्चय नय ही मुख्य है। उसी के आश्रय से धर्म होता है। शास्त्रों में जहां विकारी पर्यायों का व्यवहार नय से कथन किया है। वहां भी निश्चय नय को ही मुख्य और व्यवहार नय को गौण करने का आशय करना योग्य है। इससे भिन्न अन्य कुछ आश्रय करने योग्य नहीं है। जन्म मरण के क्लेश से छूटना हो, व मोक्ष रुप अविनाशी कल्याण चाहना हो तो अपने ज्ञान स्वरुप आत्मा को ही कल्याण स्वरुपजानकर उसी में संतुष्ट होना, राग में कभी भी संतुष्ट होना योग्य नहीं है। उसमें तो विषयों की इच्छा व आकुलता ही है, राग स्वयं ही आकुलता है, तो उसमें संतोष कैसा ? ज्ञान स्वरुप में ही निराकुलता है, अतः उसके अनुभव में ही संतोष, समता,शान्ति की प्राप्ति होती है। मुनि धर्म, शुद्धोपयोग रुप है जो आत्मा के भान पूर्वक निज स्वभाव को साधते हैं, व आत्मा में लीन होते हैं, वे ही सच्चे साधु हैं ! मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका,चारों संघ एक ही शुद्धात्म-स्वरुप की भावना भाने वाले मोक्ष मार्गी होते हैं। राग-पुण्य व व्यवहार रत्नत्रय व्दारा कोई जीव मुक्ति मार्ग का पथिक नहीं होता-क्योंकि ये भाव तो अभव्य को भी होते हैं, इसीलिए केवल व्यवहार में ही मगन रहने वाले जीव मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते। आत्मा अनादि काल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है। यह मनुष्य भव आत्मकल्याण करने,जन्म-मरण के चक्रसेछने के लिए मिला है. इसमें भी इस मनुष्य भव में इसी भव के लिए मिले, स्त्री,कुटुम्ब आदि- अनुकूलप्रतिकूल सामग्री से ही सुख-दुःख की कल्पना कर इसी को सर्वस्व मान बैठ जाना अहित का कारण आत्म घातक है| त्रिकाली ध्रुव स्वभाव को भूल कर अपने को वर्तमान जितना हीमान कर इसी में लगे रहना आत्म हित का कारण नहीं है, पैसा कमाने के भाव तो केवल पाप परिणाम हैं। पैसा से न बाह्य अनुकूलतायें मिलती न धर्म साधना होती। जिनके पापका उदय होता है उन्हें अन्य कोई सहायता नहीं करता, तथा जिनके पुण्य का उदय होता है, उन्हें सब बाह्य अनुकूलतायें मिल जाती हैं, पर इसमें आत्महित नहीं होता। आत्महित तो सच्चे देव गुरु द्वारा बताये मार्ग पर चलने से ही होता है। जिनागम में व्यवहार अपेक्षा भी उपदेश है, परन्तु व्यवहार से धर्म लाभ होता है, ऐसा कथन कहीं भी नहीं है। आगम अनुकूल शुभ व्यवहार से पुण्य बंध होता है, जो पाप की अपेक्षा संसारी जीवों को हितकारी है, पर इसे ही धर्म मानलेना मिथ्यात्व है। जैन मत का अनुयायी होने पर भी जिसे यथार्थ वस्तु स्वरुप का पता नहीं है, जो केवल व्यवहार में ही.शुभ राग में ही धर्म अति अल्प काल में जिसे संसार परिभ्रमण से मुक्त होना है, ऐसे अति आसन्न भव्य जीवों को निज परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ उपादेय नहीं है। जिसमें कर्म की कोई अपेक्षा नहीं है, ऐसा जो अपना शुद्ध परमात्म तत्व उसका आश्रय करने से सम्यक् दर्शन होता है और उसी का आश्रय करने से सम्यग्चारित्र होता है, और उसी का आश्रय करने से अल्प काल में मुक्ति होती है। इसलिए मोक्ष के अभिलाषी जीव को अपनेशुद्धात्म तत्व का आश्रय [79] [80]

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