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आर्यिका श्रावक श्राविका चारों संघ के सभी जीव सदैव निज शुद्धात्मा की भावना भाते हैं, क्योंकि शुद्ध स्व समय निजशुद्धात्मा है। एक मात्र शरण भूत
जिसे स्वभाव की महिमा जागी है। ऐसे धर्मी जीव को विषय, कषायों की महिमा टूट कर उनकी तुच्छता लगती है। तभी उसका शुद्ध स्वभाव में स्थिरता का पुरुषार्थ काम करता है। सम्यग्दर्शन, शुद्धदृष्टि की लीला बड़ी अपूर्व अद्भुत है। जिसे राग से भिन्नता हुई, स्वरुपसे एकता हुई, आनन्द अमृत रस बरसने लगा, वह एक क्षण के निर्विकल्प आनन्द में मगन हो जाता है। आत्मा, अचिन्त्य सामर्थ वाला है, उसमें अनन्त गुण स्वभाव है, उसकी रुचि हये बिना,उपयोग पर में से पलटकर स्व में नहीं आ सकता। जो पाप भावों की रुचि में पड़े हैं, उनकी तो बात ही क्या ? पर जो पुण्य की रुचि वाले, बाह्य त्याग करें, तप करें द्रव्य लिंग धारण करें, तो भी शुभ की रुचि है, तब तक उपयोग पर से पलट कर स्व में नहीं आ सकता। पर की रुचि मिटे, शुद्ध दृष्टि हो तब, स्व में स्थित हुआ जाता है। मुक्ति मार्ग की यथार्थ विधि का यही क्रम है। प्रश्न - यह सब सुनने समझने में तो अच्छा लगता है। पर इसके लिये
क्या करें? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं. ...........
गाथा (२९) संघस्य चत्रु संघस्य, भावना शुद्धात्मने ।
समय सरनस्य सुद्धस्य,जिन उक्तं सार्धधुर्व ॥२९|| अन्वयार्थ-(संघस्य) संघ के भव्य जीवों के समूह को संघ कहते हैं (चत्रु)चार (संघस्य) संघ के, चार संघ मुनि आर्यिका श्रावक-श्राविका(भावना)भावनाअन्तररुचि (शुद्धात्मनं) शुद्धात्म-स्वरुप(समय)आत्मा (सरनस्य)शरण भूत(शुद्धस्य) निजशुद्ध स्वभाव ही है (जिन उक्तं) जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है (सार्धं) इसी की श्रद्धा-साधना करो (धुवं) निश्चय ध्रुव स्वभाव इष्ट है। विशेषार्थ-सद्गुरु तारण स्वामी से उपस्थित जन समूह के भव्य जीवों ने जब यह प्रश्न किया कि गुरुदेव-आपकी बात सुनने समझने में आती है, अच्छी लगती है, वास्तव में यह ज्ञान मार्ग अलौकिक है, और जो पूजा की विधि आप बता रहे हैं यही सत्य है पर हम करें क्या? श्री गुरू कहते हैं कि श्री संघ के भव्य जीवों। निजशुद्धात्मा की हमेशा विशुद्ध भावना भाओ। मुनि
जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि यह शुद्ध भावमयी ध्रुव स्वभाव अपनी शाश्वत निधि है। अपने ध्रुव स्वभाव की श्रद्धा और साधना करके ही ज्ञानी साधक-साधु-शिव सुख को प्राप्त करते हैं। इसलिए हे भव्य जीवो ! श्रद्धा पूर्वक निज शुद्धात्म तत्व की साधना करो-यही शरण भूत और ग्रहण करने योग्य इष्ट है।
हे भव्य ! तू भाव श्रुत ज्ञान रूपी अमृत का पान कर। सम्यक्-श्रुत ज्ञान द्वारा आत्मा का अनुभव करके निर्विकल्प आनन्द रस का पान कर, जिससे तेरी अनादि-मोह तृषा का दाह मिट जाये। तूने चैतन्य रस के प्याले कभी नहीं पिये। अज्ञान से तूने-मोह-राग द्वेष रुपी विष-केप्याले पिये हैं भाई, अब तो वीतराग जिनेन्द्र देव के वचनामृत प्राप्ति करके अपने आत्मा के चैतन्य रस का पान कर, जिससे तेरी आकुलता मिटकर सिद्ध पद की प्राप्ति हो।
आत्मा को भूलकर बाह्य भावों का अनुभव वह तो विष पान करने जैसा है। भले ही शुभ राग हो, परन्तु उसके स्वाद में कहीं भी अमृत नहीं है, विष ही है। इसलिए उससे भी भिन्न ज्ञानानन्द स्वरुप आत्मा को श्रद्धा में लेकर उसी के स्वानुभव रुपी अमृत का पान कर। अहा-श्री गुरु वत्सलता से चैतन्य के प्रेम रस का प्याला पिलाते हैं। वीतराग की वाणी आत्मा का परम शान्त रस दिखाने वाली है। ऐसे वीतरागीशान्त चैतन्य रस का अनुभव वह भावशुद्धि है। इसी के व्दारा तीन लोक में सर्वोत्तम परम आनन्द स्वरुप सिद्ध पद की प्राप्ति होती है।
बाह्य क्रिया कांड में लोगों को रुचि हो गई है और अन्तर की यह ज्ञायक वस्तु निज शुद्धात्मा छूट गई है। परमात्मा क्या है? उसका स्वरुप कैसा है? इसका विचार मंथन होना चाहिए, वस्तु स्वरुप को समझे बिना जीवों को सीधा धर्म करना है, प्रतिमा धारण कर लेते हैं, हो सका तो साधु बन जाते हैं। या यह पूजादि-दानादि बाह्य क्रिया में उलझे रहते हैं और इसे धर्म मानते हैं। किन्तु भाई सम्यकदर्शन के बिना अर्थात् अपने आत्म स्वरुप
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