Book Title: Pundit Puja
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 40
________________ हैं। मर्म पकड़ने वाला ही धर्म को उपलब्ध होता है। क्रिया का शुभ अशुभ, पुण्य पाप, कर्म से सम्बंध है। धर्म से क्रिया का कोई सम्बन्ध ही नहीं है,क्योकि वस्तु स्वभाव तो निष्क्रिय, निरपेक्ष पूर्ण शुद्ध है। वहां शब्द भाषा का प्रयोजन ही नहीं है। शब्दों द्वारा वस्तु स्वरुप बताया जाता है। वस्तु तो अनुभव गम्य है। वर्तमान में जो व्यवहारिक क्रियायें, सामाजिक मान्यतायें चल रही हैं। उन्हीं का सही गूढ़ रहस्य, सच्चा मर्म बताना, संतों का काम है| जो समझेमाने उसका भला, जो न समझे, नमाने उसका भी भला, उन्हें किसी से कोई राग-द्वेष होता ही नहीं है। क्योंकि उन्होंने भेदज्ञान, तत्व निर्णय द्वारा वस्तु स्वरुप जाना है। द्रव्य की स्वतंत्रता, त्रिकालवर्ती पर्याय का निर्णय स्वीकार किया है। इससे उन्हें किसी से कोई अपेक्षा, उपेक्षा नहीं है। सहज में वर्तमान पर्याय में जो परिणमन हो रहा है, उसके भी ज्ञायक है। यह तो अपनी बात है कि अपने को कैसा क्या समझ में आ रहा है। उसे समझकर अपने मार्ग से चलें। प्रश्न - वंदना, पूजा, आराधना का सच्चा स्वरुप क्या है ? इसे सद्गुरु आगेगाथा में और स्पष्ट करते हैं...... गाथा (२८) सुद्ध दिस्टी च दिस्टते, सार्धं न्यान मयं धुवं । सुद्ध तत्वं च आराध्यं, वन्दना पूजा विधीयते॥२८॥ अन्वयार्थ - (सुद्ध दिस्टी) शुद्ध दृष्टि, जिनका दर्शन उपयोग शुद्ध हो गया (च) और (दिस्टंते) देखते हैं (सार्ध) साधना करते (न्यान मयं) ज्ञान मयी (धुवं) ध्रुव स्वभाव (सुद्ध तत्वं) शुद्धात्म तत्व (च) और (आराध्यं) आराधना करना (वन्दना) वन्दना, नमस्कार (पूजा) पूजा (विधीयते) वास्तविक विधि विधान है। विशेषार्थ - चिदानन्द मयी शुद्ध चैतन्य के अनुभवी शुद्ध दृष्टि अपने ज्ञान स्वभाव को देखते हैं, और ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की सदैव-साधना करते हैं, और आत्म ध्यान में रत रहते हैं । ज्ञानी अपने उपयोग को शुद्ध तत्व में लगाकर उसी की आराधना करते हैं और सिद्ध स्वरुपी निज शुद्धात्म तत्व की स्तुतियां पढ़ते हैं तथा निजस्वरुप का ही अनुभव करते हैं। यही वंदना, [75] पूजा की वास्तविक विधि है। साधक जीव को भूमिकानुसार देव, गुरु की महिमा के, श्रुत चिन्तवन के, अणुव्रत, महाव्रत इत्यादि के विकल्प होते हैं, परन्तु वेज्ञायकपरिणति को भाररूप हैं क्योंकि स्वभाव से विरुद्ध हैं, अपूर्ण दशा में वे विकल्प होते हैं। स्वरुप में एकाग्र होने पर निर्विकल्प स्वरुप में ध्रुव स्वभाव में रहने पर वे सब छूट जाते हैं। पूर्ण वीतराग दशा होने पर सर्व प्रकार के राग का क्षय होता है। शुभ का व्यवहार भी असार है। उसमें रुकने जैसा नहीं है। वह तो पर्याय की पात्रतानुसार सहज अपने आप होता है। साधक को यह शुभादि का व्यवहार भी बीच में आता है। परन्तु साध्य तो पूर्ण शुखात्मा ही है। जिसे विभाव से छूटकर मुक्त दशा प्राप्त करनी हो। वह चैतन्य के अभेद स्वरुप, ज्ञानमयी, ध्रुव स्वभाव को ग्रहण करता है। शुद्ध दृष्टि, सर्व प्रकार की पर्याय को दूर रखकर एक निरपेक्ष, सामान्य स्वरुप को ग्रहण करती है। शुद्ध दृष्टि के विषय में गुण भेद भी नहीं होते। ऐसी दृष्टि के साथ वर्तता हुआ ज्ञान वस्तु में विद्यमान गुणों तथा पर्यायों को, अभेद को तथा भेद को विविध प्रकार से जानता है। पर शुद्ध दृष्टि किसी में अटकती रुकती नहीं है, वह अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव पर स्थित रहती है। जिससे ज्ञान का स्व पर प्रकाशपना पलटकर शुद्धात्मतत्व की आराधना में लीन हो जाता है। यही शुद्धोपयोग की स्थिति ही वन्दना पूजा की वास्तविक विधि है, इसी से परमात्म पद प्रगट होता है। ज्ञानी शुद्ध तत्व के आलम्बन के बल से ज्ञान में निश्चय व्यवहार की मैत्रीपूर्वक आगे बढ़ता है, और चैतन्य स्वयं अपनी अद्भुतता में समा जाता है। ज्ञानी को बाहर में प्रशस्त, अप्रशस्त राग विषधर काले नाग जैसा जहर, दु:ख रूपलगता है। वीतराग दशा में अपूर्व शान्ति आनन्द का वेदन होता है, इसीलिये वह विभाव से बचकर हठकर स्वभाव की साधना करता है। जितना स्वरुप में लीन हुआ,उतनी शान्ति एवं स्वरूपानंद है, जो सच्चे देव गुरु की सच्ची वन्दना, पूजा, भक्ति है। इसी से सच्चा गुरु और सच्चा देव हुआ जाता है। यही अपने इष्ट की प्राप्ति, सही पूजा का विधि - विधान है। जिसने परम शान्ति, परम आनन्द का स्वाद चख लिया हो, उसे विभाव रुप परिणमन राग की विष्टा नहीं पुसाती, उस तरफ देखना भी नहीं चाहता, जिसे जो कार्य नरुचे, वह कार्य उसे भार रूप लगता है। इसी प्रकार (76]

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