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मैं ज्ञायक हूँ - ऐसे ज्ञान स्वभाव की श्रद्धा - ज्ञान पूर्वक जितना वीतराग भाव होता है वह संवर ही धर्म है, तथा उसी समय जोरागांश है वह आश्रव है।
इस प्रकार ज्ञानी वस्तु स्वरुप को जानता हुआ, निरन्तर ज्ञान में अवगाहन करता है। और जैसे - जैसे पर्याय में शुद्धि आती जाती है। वह स्वतः ऊपर उठता जाता है। आंख में कण भले ही सहन हो जाये, परन्तु ज्ञान मार्ग में एक अंश की कमी, भूल नहीं चलती। प्रश्न- यह ज्ञानी कैसा होता है ? इसी बात को स्पष्ट करते हुये सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं.......
गाथा (१५) प्रषालितं मन चवलं, त्रिविधि कर्म प्रषालित। पंडितो वस्त्र संजुक्त, आभरणं भूषण क्रीयते॥१५॥
अन्वयार्थ - (प्रषालितं) प्रक्षालित करता है (मनं चवलं) मन की चंचलता को (त्रिविधि कर्म) तीन प्रकार के कर्म, द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म (प्रषालितं) प्रक्षालित करता है (पंडितो) पंडित - ज्ञानी जन (वस्त्र) कपड़ा (संजुक्त) पहनता है (आभरनं भूषण) गहने आभूषण जैसे करधोनी, हार आदि पहनते हैं (क्रीयते) धारण करता है।
विशेषार्थ - शुद्ध ज्ञान मयी जल से ज्ञानी मन की चंचलता और तीनों कर्मों का प्रक्षालन करते हैं अर्थात् धोकर साफ कर देते हैं। द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म से भिन्न निज स्वभाव को पहिचानते हैं, इसलिये पुरुषार्थी को कर्म की प्रबलता नहीं होती। इस प्रकार ज्ञानी ने शुद्ध ज्ञान के जल में स्नान कर समस्त दोषों को धोकर साफ कर दिया है।
अब यह पंडित अर्थात् ज्ञानी अपने वस्त्र और आभूषणों से संयुक्त होता, अर्थात् धारण करता है।
ज्ञानी जन, ज्ञान मार्ग की साधना अर्थात अन्तरशोधन रूप निज स्वरुप का आराधन करते हैं जिससे रागादि मल विकार सब धुल जाते हैं, साफ हो जाते हैं और अपना शुद्ध चैतन्यमयी टंकोत्कीर्ण अप्पा - प्रकाशमान होने लगता है। जब तक तीन मिथ्यात्व, तीन शल्य, तीन कुज्ञान, राग - द्वेष,
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अशुभ भावना, अनन्तानुबंधी चार कषाय , पुण्य - पाप,दुष्ट कर्म, मन की चंचलता, और तीनों कर्म, द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म, की शुद्धि नहीं होती, तबतकज्ञानी ज्ञानरूपीजल में अवगाहन - स्नान करता रहता है। जब तक इनको धो पोंछ कर साफ नहीं कर देता, अर्थात् जब यह रहते ही नहीं है तब वह सज-धज कर तैयार होता है।
दृष्टि का विषय ध्रुव तत्व शुद्धात्मा है, उसमें तो अशुद्धता की बात ही नहीं है, परन्तु पर्याय में जो अशुद्धि है, उसका ज्ञान - ज्ञानी को रहता है। उसी को शुद्ध करने के लिये ज्ञानी निरन्तर, ज्ञानोपयोग - ज्ञान में स्नान करता है।
ज्ञानी को यथार्थ द्रव्य दृष्टि प्रगट हुई है। वह ध्रुव तत्व के आलम्बन द्वारा अन्तर स्वरुप स्थिरता में वृद्धि करता जाता है, जिससे पर्याय में शुद्धि होती जाती है। यथार्थ दृष्टि होने के पश्चात् भी ज्ञानी, सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र की निर्मल शुद्ध पर्याय जितने - जितने अंश में प्रगट होती है, वह उसे ही धर्म मानता है। इससे ही यह सारे दोष अपने आप बिलाते जाते हैं। यही अन्तर शोधन का मार्ग है।
ज्ञानी को अपने वर्तमान शरीरादिसंयोग के संहनन - द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अनुकूलता - प्रतिकूलता - कर्मों का उदय स्थिति अनुभाग तथा एक- एक समय रूपचलने वाली अपनी पर्याय की पात्रता का ज्ञान होता है। तद् अनुसार ही वह आचरण करता है।
विकल्प का कारण बने, ऐसा कोई कार्य ज्ञानी नहीं करता, ज्ञानी ज्ञातापने के कारण निश्चय से वैरागी है। वह उदय में आये हुये कर्म को मात्र जान ही लेता है। भोगोपभोग में होते हुये भी ऐसा जानता है कि राग व शरीरादि की समस्त क्रिया पर हैं और स्वयं ज्ञाता रूप है, इसलिये उसे किसी बात में जल्दी या उकताहट नहीं है, वह तो निरंतर अपने ज्ञान - आनन्द में मगन रहता है, और सहज में यह सब क्रम चलता रहता है। जिसे स्वरुपाचरण का अंश प्रगट हो गया, वह शान्ति पूर्वक सहजानन्द में रहता है। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखकर ही आगे बढ़ता है, कोई भी नियम प्रतिज्ञा लेता है। ज्ञानी किसी हठ के बिना - आक्षेप बिना पर के दोषों से उन्मुख होकर निज परिणाम के अवलोकन से अपनी दिखने वाली
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