Book Title: Pundit Puja
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 23
________________ शुभ भाव में ले जाता है। उसका दृष्टांत मिथ्यादृष्टि- द्रव्यलिंगी साधू हैं, वे भगवान के द्वारा कथित व्रतादि का निरतिचार पालन करते हैं, इसलिये शुभ भाव के कारण नवमें ग्रैवेयक तक जाते हैं, किन्तु उनका संसार बना रहता है, और भगवान के द्वारा कथित शुद्ध निश्चयनय ज्ञान मार्ग शुभ और अशुभ दोनों से बचाकर जीव को शुद्ध भाव में मोक्ष में ले जाता है। उसका दृष्टांत ऐसे ज्ञानी सम्यक दृष्टि हैं जो कि निश्चय मोक्ष सिद्ध पद प्राप्त करते हैं। जिसे अपना हित आत्म कल्याण करना है । उसे वस्तु स्वरुप धर्म के यथार्थ स्वरुप को समझकर पराश्रय छोड़ना आवश्यक है। जब तक पराधीनता पराश्रयपना रहेगा, तब तक कभी मुक्ति होने वाली नहीं है। - जिस ज्ञान में स्व अपना स्वरूप, अर्थ विषय, व्यवसाय, यथार्थ निश्चय में तीन बातें पूरी हों, उसे सम्यक्ज्ञान कहते हैं । अर्थात् जिस ज्ञान में विषय प्रतिबोधक साथ साथ स्व स्वरुप प्रतिभासित हो और वह भी यथार्थ हो तो उस ज्ञान को सम्यक्ज्ञान कहते हैं। श्री जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित ज्ञान के समस्त भेदों को जानकर, पर भावों को छोड़कर और निज स्वरुप में स्थिर होकर, जीव जो चैतन्य चमत्कार मात्र है उसमें प्रवेश करता है, स्नान करता है, गहरा उतर जाता है वह पुरुष शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करता है। ज्ञान स्वरुप आत्मा के अवलम्बन से बार बार ज्ञान में स्नान करने से (१) निज पद की प्राप्ति होती है (२) भ्रान्ति का नाश होता है (३) कर्मों का नाश क्षय होता है (४) राग द्वेष उत्पन्न नहीं होते (५) कर्मों का बंध नहीं होता (६) सब शुभ अशुभ भाव मिथ्यात्व शल्य कषायें दूर होती हैं। पर द्रव्य, जड़ कर्म और शरीर से जीव त्रिकाल भिन्न है। जब वे एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध से सहित हैं, तब भी जीव के साथ एक नहीं होते, ऐसा सम्यक्ज्ञान होने पर उनकी उन्मत्तता दूर हो जाती है, इसी का नाम प्रक्षालन करना है । प्रश्न- इस ज्ञानी पंडित की स्थिति क्या होती है। क्या यह क्षायिक सम्यक दृष्टि वीतरागी साधु होता है ? क्योंकि जिन का प्रक्षालन बताया गया है, वह तो सामान्य अव्रत दशा में नहीं हो सकता। जैसे तीन मिथ्यात्व, चार [41] अनन्तानुबंधी कषाय, क्षायिक सम्यक्त्व होने पर ही साफ होती हैं। तीन कुज्ञान- सम्यक्ज्ञान होने पर जाते हैं, तीन शल्य पंचम गुण स्थानवर्ती होने पर जाती हैं और राग-द्वेष अशुभ भावना पुण्य पाप - दुष्ट कर्म (पापादि अशुभ कर्म ) यह वीतरागी निर्ग्रन्थ साधु होने पर ही बिलाते हैं, करणाणु योग से यह बात सिद्ध है। - समाधान यह बात बिल्कुल सत्य है। ज्ञानी पंडित का मतलब कोई अवृती घर गृहस्थी वाले जीव से नहीं है। यहां तो जो सम्यक्दर्शन पूर्वक सम्यक्ज्ञानी हुआ है, वह किस भूमिका में बैठा है, यह उसकी वर्तमान पात्रता परिस्थिति की बात है । पर उसका मार्ग पूजा का विधान तो अपना अन्तर शोधन है, और वह इन सब की सफाई करता है। यह एक दिन की बात नहीं है कि इधर नहाया प्रक्षालन किया, और पवित्र हो गये। यह तो जब तक ऐसी पूर्ण शुद्ध सही दशा नहीं बनती, तब तक बराबर ज्ञानोपयोग करता हुआ अन्तरशोधन करता जाता है। ज्ञानी को न उकताहट है न जल्दी है, उसे वस्तु स्वरूप का ज्ञान है कि जिस पर्याय में जब जैसी शुद्धि आना है, वह उसी समय आयेगी, और जब तक पर्याय शुद्ध नहीं होती तब तक अपना पुरुषार्थ ज्ञानोपयोग, ज्ञान स्नान करते हुये स्वयं आनन्द में रहता है। जब वैसी पात्रता होगी तभी आगे बढ़ने की बात है। - इसको छोडूं - इसको ग्रहण करूं, यह बात तो रहती ही नहीं है बल्कि शुद्धोपयोग को लाने की भी बात नहीं है। यह वस्तु की मर्यादा है। शुद्धोपयोग का काल न हो तो क्या ज्ञानी उस समय उसे लाना चाहता है, क्या पर्याय क्रम बदल सकता है ? नहीं। वह तो ज्ञान स्वभाव की ओर का पुरुषार्थ करता है, जिससे सहज ही सब क्रम अपने आप चलता रहता है। जिस समय जो परिणमन होने हैं, सो होंगे ही। समकिती को उन्हें बदलने की बुद्धि नहीं होती। पर्याय बदलने की बुद्धि तो मिध्यादृष्टि को होती है। पर वह भी बदलती नहीं है, सिर्फ विकल्प करता है । आत्मा में जो पंच महाव्रत भक्ति आदि के भाव होते हैं । वह भी शुभ राग आसव है। सम्यक्दृष्टि को भी जितना रागांश है, वह धर्म नहीं है। राग रहित व सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता रूप शुद्ध स्वभाव ही धर्म है। [42]

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