Book Title: Pundit Puja
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 21
________________ शुद्धोपयोग होता है। ज्ञान में एकाग्रता होने से ज्ञानानन्द स्वभाव के आश्रय से सहज शुद्धोपयोग हो जाता है। यही पंडित का ज्ञान स्नान पर्यायों के अनन्त - अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदों को एक समय में प्रत्यक्ष जानता है। ऐसे अचिन्त्यमहिमावन्त केवलज्ञानी ही इस अगाध ज्ञानसरोवर की थाह पाते हैं और निरन्तर उसी में निमग्न रहते हैं। वीतरागीसंत गणधर देवों का निवास इसी ज्ञानसरोवर में रहता है। उपयोग तीक्ष्ण होकर गहरे-गहरे चला जाता है। शरीर के प्रति राग छूट गया है, शान्ति का सागर उमड़ा है - चैतन्य की पर्याय की विविध तरंगे उछल रही हैं। ज्ञान में कुशल है, दर्शन में प्रबल है। समाधि के वेदक है, अन्तर में तृप्ततृप्त है। ऐसे ही ज्ञानी अपने ज्ञान स्वभाव में डुबकी लगाते हैं वही ज्ञानसरोवर में स्नान करते हैं। प्रश्न- ज्ञानी अब और कौन से जल से स्नान करते हैं? इसके समाधान में सदगुरु आगे गाथा कहते है........... गाथा (१२) शुद्धात्मा चेतना नित्व, सुख दिस्टि समं धुवं । सुद्ध भाव अस्थरी भूत, न्यानं अस्नान पण्डिता ।।१२॥ अन्वयार्थ - (शुद्धात्मा) शुद्धात्म स्वरुप परमात्मा (चेतना) चैतन्यमयी ज्ञान स्वभावी (नित्वं) सदैव, अनादि अनंत है (शुद्ध दिस्टि) सम्यकदृष्टि (समं) इसी प्रकार, उन्हीं जैसा, समान (धुवं) अपने को निश्चय से जानते हैं, ध्रुव अटल है (शुद्ध भाव) शुद्ध स्वभाव में (अस्थरी भूतं) लीन होकर ठहरते हैं (न्यानं) ज्ञान में (अस्नान) स्नान - नहाना (पण्डिता) पंडितजन ज्ञानी। विशेषार्थ - शुद्धात्मस्वरुप, परमात्मा सदैव, चैतन्यमयी अनादि अनंत शुद्ध है। शुद्ध दृष्टि ज्ञानी, ऐसा ही अपना स्वरुप है ऐसा जानते हैं कि मैं निर्मल ज्ञानमयी शुद्ध चैतन्य ध्रुवस्वभाव शुद्धात्मा हूँ, इसी अनुभूति युत निर्णय से अपने शुद्ध स्वभाव में ठहरते हैं, लीन होते हैं यही पंडित का ज्ञान स्नान है। ज्ञान पूर्वक शुद्ध भाव में स्थिर होना, ठहरना ही शुद्धोपयोग है - और यही शुद्ध मुक्ति मार्ग है। स्वरुप में लीन होने पर बुद्धिपूर्वक राग का अभाव होना ही शुद्धोपयोग है। स्वभाव सन्मुख दृष्टि होने के बाद काल क्रम में [37] परको छोडूं - अथवा राग को छोडूं यह बात तो रहती ही नहीं। ज्ञान स्वभाव का जो पुरुषार्थ है, उस स्वभाव सन्मुख दशा में उग्रता होते ही उसमें डूबते ही शुद्धोपयोग सहज ही हो जाता है। प्रश्न - ऐसा ज्ञानी पंडित बाह्य में कुछ भी करता रहे क्या उसको शुद्धोपयोग हो सकता है? समाधान - जिनके अन्तर में भेदज्ञान रूपी कला जागी है। चैतन्य के आनन्द का वेदन हआ है, ऐसे ज्ञानी - धर्मात्मा सहज ही वैरागी होते हैं। ऐसे ज्ञानी पंडित विषय कषायों में मग्न हों - यह विपरीतता सम्भावित नहीं है। जिन जीवों को विषयों में सुख बुद्धि है वे ज्ञानी नहीं हैं। ज्ञानी केतो अन्तर के चैतन्य के अलावा सुख कहीं नहीं है, समस्त विषय सुख के प्रति उदासीनता होती है। सम्यक्दृष्टि जीव आत्मज्ञान पूर्वक आचरण पालते हैं। उनकी भूमिकानुसार व्रत संयमादि होते हैं। श्रावक को बारह व्रतादिका तथा मुनि को महाव्रतादि का पालन होता है। पर उनका लक्ष्य बाह्य आचरण पर नहीं होता है। इसे धर्म नहीं मानते, उनका पूरा जोर तो अपने ज्ञान स्वभाव की साधना का ही रहता है। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी होने पर कोई पूर्ण वीतरागता नहीं हो जाती, सम्यकदर्शन होने के बाद भी रागादि भाव तो आते ही है। जब निर्विकल्प आनन्द में ज्ञान पर्याय एकाग्र हो जाये, वह तो श्रेयस्कर ही है, और उसके लिये ही पूरा पुरुषार्थ करते हैं। परन्तु जब निर्विकल्प आनन्द में न रह सके तबस्वाध्याय, देव - गुरु की भक्ति,संयमतप आदि प्रशस्त राग में लगे रहते हैं। इसके विपरीत कोई विकथा विषय - कषाय - पापादि - निन्दनीय प्रवृतियों में लगे रहते हैं, तो वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि हैं। आत्मा का स्वरुप परिपूर्ण है, ऐसा अन्तर भान हुआ हो, और पुण्य छोड़कर पाप में प्रवर्तन करे। तथा शास्त्र की ओट लेकर कहे कि इनमें क्या रखा है। यह पुण्य पाप सब हेय है, तो वह निश्चयाभाषी, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि है, जो दुर्गति जायेगा। [38]

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