Book Title: Pundit Puja
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 29
________________ मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनि तें। चित पिंड चंड अखंड सुगुण करंड, च्युत पुनि कलनि तें। यो चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनन्द लह्यो। सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो । तब ही शुकल ध्यानाग्नि करि, चउ घाति विधि कानन वह्यो। सब लख्यो केवलि ज्ञान करि, भवि लोक को शिव मग करो। स्वरुप में स्थिर हये ज्ञानी ही साक्षात अतीन्द्रिय आनन्दामृत का पान करते हैं। द्रव्य दृष्टि सब प्रकार की पर्याय को दूर रखकर एक निरपेक्ष, सामान्य स्वरुप को ग्रहण करती है। द्रव्य दृष्टि के विषय में गुण भेद भी नहीं होते, वही शुद्ध दृष्टि है। शुद्ध दृष्टि के साथ वर्तता हुआ ज्ञान, वस्तु में विद्यमान गुणों तथा पर्यायों को अभेद तथा भेद को विविध प्रकार से जानता है। ऐसा होने पर भी शुद्ध दृष्टिकहीं उलझती - अटकती नहीं है, जब तक उलझती, अटकती है, तब तक शुद्ध दृष्टि नहीं है। शुद्ध दृष्टि तो एक मात्र ध्रुव शुद्धात्मा पर ही रहती है। प्रश्न- ज्ञानी अभी शरीरादि संयोग सहित संसार में है, और यह सब देखने - जानने में आता है, फिर इसमें शुद्ध दृष्टि क्या करते हैं? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं............ गाथा (१९) (२०) लोक मूढ़ न दिस्टन्ते, देव पाषंड न दिस्टते। अनायतन मद अस्टं च, संका अस्ट न दिस्टते ॥१९॥ दिस्टतं सुद्ध पदं सार्ध, दर्सनं मल विमुक्तयं । न्यानं मयं सुद्ध समिक्त, पंडितो दिस्टि सदा बुधै॥२०॥ अन्वयार्थ - (लोकमूद) लोक मूढ़ता (न दिस्टते) नहीं देखते (देव पाषंड) देवमूढ़ता - पाखंड मूढ़ता (न दिस्टले) नहीं देखते (अनायतन) छैः अनायतन (मद अस्ट) आठ मद (च) और (संका अस्ट) शंकादि आठ दोष (न दिस्टते) नहीं देखते। (दिस्टतं) देखते हैं (सुद्ध पदं) शुद्ध पद सिद्ध स्वरुप ध्रुव तत्व को (सार्ध)साधना करते हैं (दर्सन) दर्शन उपयोग (मल विमुक्तयं) मलदोषों से विमुक्त - रहित होता है (न्यानं मयं) ज्ञान सहित (शुद्ध संमिक्तं) शुद्ध [53] सम्यक्त्व के धारी (पंडितो) पंडिज ज्ञानी - जन (दिस्टी) दृष्टि (सदा) हमेशानिरन्तर (बुधै) ज्ञान मय शुद्ध रहती है। विशेषार्थ- सम्यग्दृष्टि ज्ञानी लोक मूढ़ता को नहीं देखते तथा देव मूढ़ता की झूठी मान्यता को त्याग देते हैं, जो पाखंडी गुरु संसार में प्रपंच को धर्म कहते हैं, ज्ञानी इस पाखंड मूढ़ता को भी नहीं देखते उनके बताये हुये कुमार्ग में नहीं जाते। कुगुरु कुदेवादि छह अनायतन और ज्ञानादि आठ मदों का ज्ञानी को रंच मात्र भी अनुराग नहीं होता, तथा शंका आदि आठ दोषों को भी वे नहीं देखते। ज्ञानी सम्यक्त्व के पच्चीस दोषों से रहित निर्दोष दृष्टि के धारी अपने में हमेशा जाग्रत रहते हैं। ज्ञानी साधक चैतन्यमयी निज पद को देखते हैं, जो त्रिकाल शुद्ध सिद्ध स्वभाव का धारी निजानन्द मयी चित्स्वरुप है, ज्ञानी हमेशा अपने शुद्ध चिद्रूप स्वभाव की साधना करते हैं, जिससे दर्शनोपयोग समस्त मलों से रहित शुद्ध होता है। जिसमें निरन्तर निज शुद्धात्म स्वरुप अखंड ध्रुव स्वभाव प्रकाशित रहता है। जिसको द्रव्य दृष्टि यथार्थ प्रगट होती है, अर्थात् शुद्ध दृष्टि हो जाती है, उसे दृष्टि के जोर में अकेला ज्ञायक चैतन्य ही भासता है, शरीरादि कुछ भाषित नहीं होता, भेद ज्ञान की परिणति ऐसी वृढ़ हो जाती है कि स्वप्न में भी आत्मा शरीर से भिन्न भासता है। विन की जाग्रत दशा में तो ज्ञायक निराला ही रहता है। उसको भूमिकानुसार बाह्य वर्तन होता है, परन्तु चाहे जिस संयोग में उसकी ज्ञान - वैराग्य शक्ति अनुपम - अद्भुत रहती है। मैं तो ज्ञायक - ज्ञायक - ज्ञायक ही हूं - निशंक ज्ञायक हूँ। विभाव और मैं कभी एक नहीं हुये, ज्ञायक पृथक ही है। सारा ब्रह्मांड पलट जाये तथापि मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा ज्ञायक स्वभावी पृथक ही हूं - ऐसा दृढ़ अटल - अचल निर्णय रहता है, स्वरुप अनुभव में अत्यन्त निःशंकता वर्तती है। ज्ञानी - ज्ञायक का अवलम्बन लेकर विशेष - विशेष समाधि सुख प्रगट करने को उत्सुक है, अर्थात् निज परमात्म स्वरुप में लीन एकाग्र होकर उसी में डूबे रहना चाहते हैं। स्वरुप में कब ऐसी स्थिरता [54]

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