Book Title: Pundit Puja
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 14
________________ रत्नत्रय-मयी अर्थात् परमसुख, परमशान्ति, परमानन्द का भंडार ध्रुव स्वभावी, अनन्त गुणों का निधान आत्मा अपना ही शुद्ध स्वरुप है । जब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान द्वारा ऐसा अपने महिमामयी गुण प्रगट करता है, इसलिये पंझिजन गुणों के पुजारी होते हैं तथा चैतन्य गुणों की पूजा करते हैं। इसी बात को तत्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण में कहा है........ मोक्ष मार्गस्य नेतार, भेत्तारं कर्म भूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्वानां,वंदे तद् गुण लब्धये ॥ तत्वार्थ सूत्र ।। मोक्ष मार्ग के प्रवर्तक, कर्म रुपी पर्वतों के भेदक अर्थात् नष्ट करने वाले तथा विश्व के (समस्त) तत्वों को जानने वाले (आप्त) केवल ज्ञानी परमात्मा को उनके गुणों की प्राप्ति के हेतु मैं प्रणाम करता हूँ वन्दना करता यहां गुणों से पहचान करके परमात्मा को नमस्कार किया है। अर्थात् परमात्मा विश्व के समस्त तत्वों के ज्ञाता हैं। मोक्ष मार्ग के नेता हैं और उन्होंने सर्व विकारों (दोषों ) का नाश किया है, इस प्रकार परमात्मा के गुणों का स्वरुप बतलाकर गुणों को पहिचान कर ऐसे ही गुणों का धारी मैं आत्मा हूँ, उन गुणों की प्राप्ति हेतु वन्दना करता हूँ। यदि जीव को वस्तु के यथार्थ स्वरुप सम्बधी मिथ्या मान्यता न हो तो ज्ञान में भूल न हो, जहां मान्यता सच्ची होती है, वहां ज्ञान भी सच्चा होता है। सच्ची मान्यता और सच्चे ज्ञान पूर्वक होने वाली सच्ची प्रवृत्ति द्वारा ही जीव दुख से मुक्त हो सकता है। अनादि से जीव को अपने सत्स्वरुप का विस्मरण होने से यह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि बना संसार में परिभ्रमण कर रहा है। अपने को नर नारकादिक पर्यायधारी ही मान रहा है। जब भेदज्ञान सम्यग्दर्शन द्वारा यह भूल दूर होती है और अपने सत्स्वरुपकाबोध होता है तब ही जीव का सत्पुरुषार्थ जाग्रत होता है कि मैं स्वयं अनन्तगुण निधान, अनन्त चतुष्टय का धारी सर्वज्ञ स्वभावी परमात्मा हूँ तभी पूर्व कर्म बन्धोदय से आवृत अपने गुणों को प्रगट करने का प्रयास पुरुषार्थ करता है। यही साधना - आराधना उसकी पूजा भक्ति है। पर यह पूजा भक्ति किसी पर परमात्मा की नहीं, अपने ही परमात्म स्वरुप की होती है और इससे [23] स्वयं परमात्मा हो जाता है। निज परमात्म तत्व के सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान, अनुष्ठान, रूप शुद्ध रत्नत्रयात्मक कल्याणार्थ परम निरपेक्ष होने से मोक्ष मार्ग है और यह शुद्ध रत्नत्रय का फल निज शुद्धात्मा की प्राप्ति है। जिस पुरुष के मुक्ति को प्राप्त करने वाला सम्यक्त्व है और उस सम्यक्त्व को स्वप्न में भी मलिन नहीं किया, अतिचार नहीं लगाया, वह पुरुष धन्य है, वही कृतार्थ है, वीर शूरवीर है, वही पंडित है, वही मनुष्य है। मानुष तो विवेकवान, नहीं तो पशु के समान। सम्यक्त्व की भावना, तत्व निर्णय से गृहस्थ को गृह कार्य सम्बन्धी आकुलता, क्षोभ दःख मिट जाता है। कार्य के बिगड़ने सुधरने में वस्तुस्वरुप का विचार आता है तब दुःख मिट जाता है। सम्यग्दृष्टि के ऐसा विचार होता है कि सर्वज्ञ ने जैसा वस्तु स्वरुप जाना है वैसा निरन्तर परिणमित हो रहा है और वैसा ही होता है। इसमें इष्ट अनिष्ट मानकर सुखी - दुःखी होना व्यर्थ है। ऐसे विचार से दुःख मिटता है यह प्रत्यक्ष - अनुभव गोचर है। सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव ने जिस आत्मा को ध्रुव कहा है उसका जो जीव अवलम्बनलेता है उसे उस ध्रुव स्वभाव में सेशुद्धता प्रगट होती है। जब यह आत्मा स्वयं राग से भिन्न होकर अपने में एकाग्र होता है तब केवल ज्ञान को उत्पन्न करने वाली ज्ञान ज्योति उदित होती है। स्वरुप में एकाग्र होते ही अन्तर मुहुर्त में केवल ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और अन्तर मुहुर्त में देह छूटते ही सिद्ध हो जाते हैं। अपने गुणों की पूर्णता प्रगट करना ही सच्ची पूजा है, चैतन्य गुणों का पुजारी स्वयं भगवान बनता है। जड़ पर्यायादि का पुजारी दास बनता है। त्रिकाली ध्रुव आत्म द्रव्य को पकड़ने पर ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान होता है। उसे पकड़ने पर ही सम्यक् चारित्र होता है उसे पकड़ने पर ही केवल ज्ञान होता है। जिन शासन के दो भेद हैं। द्रव्य और भाव - इन दोनों में समस्त जिन शासन समाविष्ट हो जाता है। ऐसा विधान जिनवाणी में है, यही समयसार में कहा है [24]

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