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ज्ञान, चारित्रमयी ध्रुव परमात्मा स्वयं है। स्वभाव से निर्मल चैतन्य स्वरुप अजर - अमर - अविनाशी चिद्रूप धाम है।
निज शुखात्मा का यही त्रिकाल शाश्वत ध्रुव शुद्ध स्वभाव ही सच्चा देव, गुरु, शास्त्र और धर्म है।
अध्यात्मवादी, ज्ञान मार्ग के पथिक निश्चय अर्थात् अपने सत्स्वरुप श्रद्धान में शुद्धात्मा को ही सच्चा देव मानते हैं। निज अन्तरात्मा को सच्चा गुरु मानते हैं। सुबुद्धि के जागरण (सुमति सुश्रुत ज्ञान) को ही जिनवाणी (शास्त्र) मानते हैं और अपनाशुद्ध चैतन्य स्वभाव ही धर्म है।
सिद्धान्ततः आत्मा ही (चैतन्य स्वरुप ही) देव होता है, वही गुरु होता है, वही शास्त्र और वही धर्म होता है। जड़ में चेतनता न होने से देवत्वपने का अभाव है।
व्यवहार में जो आत्मा उस स्थिति को उपलब्ध पूर्णता को प्राप्त हो गये, उन्हें देव कहते हैं। जो वीतरागी निर्ग्रन्थ संत साधु है उन्हें गुरु कहते हैं, ज्ञान प्राप्त कराने वाली वाणी को शास्त्र कहते हैं और मूलतः निज स्वभाव ही धर्म है। धर्म के नाम पर शुभाचरण रूप पुण्य को धर्म मानना ही अज्ञानमिथ्यात्व है।
पंडित ज्ञानी जब अनुभव करता है तब "सिद्ध समान" ही आत्मा का अनुभव करता है। निज स्वभाव में स्थिर होता है तभी आत्मतत्व की अनुभूति होती है। अरिहन्त सिद्धों आदिको जैसा अनुभव होता है वैसा धर्मी जान लेता है। "अनुभव पूज्य है"। स्वयं शख आनन्द कन्द सच्चिदानन्द भगवान आत्मा है। ऐसी श्रद्धा सहित अनुभव पूज्य है वही परम है- वही धर्म है- वही जगत का सार है वही भव से उद्धार करता है।
जिसके सच्ची श्रद्धा प्रगट होती है, उसका सम्पूर्ण अन्तरंग ही बदल जाता है। अनादि अज्ञान - अंधकार टलता है। अन्तर की ज्योति जल उठती है। स्वयं गुरु और देव होने वाला है।
सर्वज्ञ देव ने एक समय में तीन काल व तीन लोक जाने हैं। वैसा ही मेरा भी जानने का ही स्वभाव है। जो होनी है वह बदल नहीं सकती पर जो होना है उसका मैं तो मात्र जानने वाला हूँ। मैं पर की पर्याय को भी बदलने
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वाला नहीं, धर्मी का निज स्वभाव सन्मुख रहते हुए, ऐसा निश्चय होता है कि जो नहीं होना है, वैसा कभी नहीं होने वाला है। मैं कहीं भी फेर बदल करने वाला नहीं हैं।
____ अन्तर में जिन स्वरुपी भगवान आत्मा वीतराग मूर्ति है। सभी जीव अन्तर में तो जिन स्वरुप हैं, पर्याय में अन्तर है, परन्तु वस्तु में अन्तर नहीं है। आत्मा तो स्वयं ही जिन स्वरूप है। वीतराग चैतन्य मूर्ति अखन्डानन्द नाथ प्रभु है। उसकी दृष्टि पूर्वक जिनकी राग और विकल्प की दृष्टि छूट गई हो, वही पंडित ज्ञानी हैं।
आतम ही है देव निरंजन, आतम ही सद्गुरु भाई। आतम शास्त्र धर्म आतम ही, तीर्थ आत्म ही सखदाई॥ आत्म मनन ही है रत्नत्रय, पूरित अवगाहन सुखधाम । ऐसे देव शास्त्र सद्गुरुवर, धर्म तीर्थ को सतत् प्रणाम ।।
ज्ञानी की दृष्टि में अपना आत्मा ही देव, गुरु, शास्त्र और धर्म होता है। वह इसी की साधना - आराधना कर स्वयं देव हो जाता है। प्रश्न - जब आत्मा ही देव गुरु, शास्त्र, धर्म है, फिर ज्ञानी को कुछ
करने होने की बात ही नहीं है। तब वह पूजा किसकी और क्यों करता है? इसके समाधान में सदगुरु आगे गाथा कहते हैं .........
गाथा (७) वीज अंकुरनं सुद्ध, त्रिलोक लोकित धुवं । रत्नत्रयं मयं सुद्धं, पंडितो गुण पूजते॥७||
अन्वयार्थ - (वीज) पुरुषार्थ (अंकुरनं) अंकुरित हुआ - प्रगट हुआ (सुद्धं) शुद्ध(त्रिलोकं) तीन लोक को (लोकितं) देखने वाला (धुवं) ध्रुव स्वभाव, केवल ज्ञान मयी, (रत्नत्रयं) रत्नत्रय, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र (मयं) मयी(सुद्ध) शुद्ध है (पंडितो) पंडित, ज्ञानीजन (गुण) ऐसे गुणों को (पूजते) पूजते हैं।
विशेषार्थ - तीन लोक, तीन काल के समस्त द्रव्य तथा उनकी त्रिकालवर्ती पर्याय केवल ज्ञान की एक समय की पर्याय में झलकती है। जो
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