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यथार्थ ज्ञान है। शुद्ध निश्चयनय द्वारा अपने पंच ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की साधना करके केवल ज्ञान प्रगट करना ही ज्ञान मयी जिनवाणी की सच्ची पूजा है।
वीतराग वाणी रूपी समुद्र मंथन से जिसे शुद्ध चिद्रूप रत्नप्रगट हुआ है वह मुमुक्षु चैतन्य प्राप्ति के परम उल्लास में कहता है कि अब मुझे चैतन्य सिवाय कोई कार्य नहीं है, अन्य कोई वाच्य नहीं है, अन्य कोई ध्येय नहीं है, अन्य कोई श्रवण योग्य नहीं है, अन्य कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है, अन्य कुछ श्रेय नहीं है।
ज्ञानी को यथार्थ दृष्टि प्रगट हुई है। वह अन्तर स्वरुप स्थिरता का पुरुषार्थ करता है। परन्तु जब तक अपूर्ण दशा है पुरुषार्थ मंद है। पूर्ण रूप से शुद्ध स्वरुप में स्थिर नहीं होता, तब तक ज्ञान ध्यान की साधना करता है। जिनवाणी का स्वाध्याय मनन करता है। अपने ध्रुव तत्वका ध्यान करता है। यही पंडित ज्ञानी कीशास्त्र पूजा है।
जिसकी तत्व की दृष्टि हुई है, उसी को सम्यग्ज्ञान होता है।
जिसने आत्मा को शरीरादिव रागादि से भिन्न जाना है। उसे यह जगत जो धूल का ढेर है, जरा भी प्रभावित नहीं कर सकता - वह अपने चैतन्य स्वरुप निज की सत्ता शक्ति से जरा भी विचलित नहीं होता। जिसे बाहर में कुछ भी नहीं चाहिए, संसारी कोई कामना वासना नहीं है। वह पर की पूजा भक्ति किसलिये करेगा।
यथार्थ समझने वाले को वीतराग देव, गुरु, शास्त्र के प्रति भक्ति का प्रशस्त राग आता है। वह उनके गुणों का स्मरण करता है। उसका चित्त भक्ति भाव से उल्लसित हो जाता है। अन्तरंग में वीतराग स्वरुप निज शुद्धात्मा का लक्ष्य होता है। मेरे में ऐसे गण कब प्रगट होवें, मैं भी ऐसे निर्विकल्प निजानन्द - पूर्णपरमानन्द में कब होऊँ, इस भावना से सच्चे देव, गुरु की वाणी - जिनवाणी के प्रति भक्ति प्रभावना आदि का भाव उल्लसित होता है। तथापि वे यह जानते हैं कि यह राग है धर्म नहीं है। अन्तर शुद्ध चिदानन्द स्वरुप को प्रगट किये बिना जन्ममरण टलने वाला नहीं है।
अडोल दिगम्बर वृति के धारक वीतरागी संत वन में रहने वाले और चिदानन्दस्वरुप आत्मा में डोलने वाले मुनिवर आत्मा के अमृत कुंड में मग्न
होकर छठे - सातवें गुण स्थान में झूलते हैं। वे वैराग्य की बारह भावना भाते हुये, वस्तु स्वरुप का चिन्तवन करते हैं। ऐसी वैराग्य रस सहित वीतराग वाणी को भाने से किस भव्य को आनन्द स्फुरित न होगा। सभी भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग के प्रति उत्साह जाग्रत होता ही है।
यथार्थ दृष्टि होने के पश्चात भी ज्ञानी देव, गुरु, शास्त्र की भक्ति वगैरह के शुभ भाव में संयुक्त होता है। परन्तु वह ऐसा नहीं मानता कि इससे धर्म होगा सम्यग्दर्शन होने के बाद स्थिरता में विशेष वृद्धि होने पर उसे वृतादि के परिणाम आते हैं । परन्तु वह उससे भी धर्म नहीं मानता। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की निर्मल शुद्ध पर्याय जितने - जितने अंश में प्रगट होती है वह उसे ही धर्म मानता है। दया - दान- पूजा भक्ति वगैरह के शुभ परिणाम तो विकारी भाव हैं उनसे पुण्य बंध होता है लेकिन धर्म नहीं होता। ज्ञानी को देव - गुरु-शास्त्र की भक्ति- पूजा - प्रभावना वगैरह के ऐसे शुभ भाव होते हैं कि वह उसमें तन्मय होकर नृत्य करने लगता है। वैसे भाव अज्ञानी को होते ही नहीं है। जिनवाणी का स्वाध्याय कर अपने ज्ञान स्वरुप को प्रगट करना हमेशा समता शान्ति में ज्ञायक भाव में रहना, केवल ज्ञान, ध्रुवस्वभाव की ओर दृष्टि रहना ही शास्त्र पूजा का विधान है। प्रश्न - ज्ञानी की दृष्टि में सच्चे देव, गुरु, शास्त्र, धर्म कौन हैं? इसका समाधान सद्गुरु आगेगाथा में कहते है..
गाथा (६) उवं हियं श्रियं कारं, दर्सनं च न्यानं धुवं । देवं गुरं श्रुतं चरन, धर्म सद्भाव सास्वत ॥६॥
अन्वयार्थ - (उवं) ओंकार, ब्रम्ह स्वरुप (हियं) अरिहंत सर्वज्ञ स्वरुप (श्रियंकार) मोक्ष लक्ष्मी, शुद्ध मुक्तस्वरुप (दर्सन) दर्शन(च) और (न्यानं) ज्ञानमयी (धुवं) ध्रुव है (देवं) देव है (गुरूं) गुरु है (श्रुतं) शास्त्र है (चरनं) चारित्र है।( धर्म) धर्म(सद्भाव) निज स्वभाव (सास्वतं) अजर, अमर, अविनाशी।
विशेषार्थ - निज आत्मा ऊँकारमयीशुद्ध स्वरुपी, ह्रियंकार अर्थात परिपूर्ण ज्ञान स्वरुप और श्रियंकार मयी शुद्ध भाव से अलंकृत सम्यग्दर्शन
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