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उसमें ही डुबकी लगाता है, स्नान करता है, भेदज्ञान की धारा सतत् बहती रहती है।
चैतन्य के अनुभव का आनन्द, धर्मी का चित्त - अन्य कहीं लगने नहीं देता, वह तो स्वानुभव के शान्त रस में निरन्तर डूबा रहना चाहता है। वह तो चैतन्य के आनन्दकी मस्ती में इतना मस्त है, कि अब अन्य कुछ भी करना शेष नहीं रहा।
शुद्धात्म स्वरुप के ध्यान में स्थिर होकर ज्ञानी शुद्ध ज्ञान के जल में स्नान करता है, जिससे उसकी अनेक गुण की पर्याय निर्मल होती है खिलती है, जिस प्रकार बसन्त ऋतु आने पर वृक्षों में विविध प्रकार के पत्र - पुष्प फलादि खिल उठते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी को चैतन्य की बसन्त बहार आने पर आनन्द सरोवर में डुबकी लगाने से अनेक गुणों की विविध प्रकार की पर्यायें खिल उठती है, शुद्ध होती जाती है।
जो न हो सके वह कार्य करने की बुद्धि करना मूर्खता की बात है। अनादि से यह जीव जो नहीं हो सकता उसे करने की बुद्धि करता है। और जो हो सकता है, वह नहीं करता। जीव को अटकने - भटकने के जो अनेक प्रकार हैं उन सब में से विमुख हो और मात्र चैतन्य स्वरूप में ही उपयोग को लगा दे, तो अनन्त काल की भठकन मिट जाये।
ज्ञानी अपने चैतन्यस्वरुपके ध्यान में एकाग्र होकर उस अतीन्द्रिय आनन्द अमृत सरोवर में डुबकी लगाता है, स्नान करता है। जिसे त्रिकाली स्वभाव में ऐसी आसक्ति हो गई है कि अन्य किसी पदार्थ में आसक्ति होती ही नहीं है।
ज्ञानी को भी क्षणिक विकल्प उठते है, लेकिन पूर्व की अज्ञान दशा अनुसार विकल्प में जोर नहीं है, विकल्प उठते हैं, और कुछ समय में ही खत्म हो जाते हैं।
ज्ञान तो वह है जिससे बाह्य वृत्तियां रुक जाती हैं, संसार पर से सचमुच प्रीति घट जाती है। सत्य को सत्य जानता है, जिससे आत्मा में अनन्त गुण प्रगट होते हैं। स्वानुभूति के काल में अनन्त गुण सागर आत्मा अपने आनन्दादि गुणों की चमत्कारिक स्वाभाविक पर्यायों में रमण करता
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हुआ प्रगट होता है। वह निर्विकल्प दशा अद्भुत है, वचनातीत है। वह दशा प्रगट होने पर सारा जीवन पलट जाता है। इस प्रकार ज्ञानी बार - बार ज्ञान सरोवर में डुबकी लगाता है। प्रश्न - अब ज्ञानी कौन से जल से स्नान करता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगेगाथा कहते हैं ........
गाथा (१०) सुद्ध तत्वं च वेदन्ते, त्रिभुवन न्यानं सुर। न्याने मयं जलं सुद्धं, अस्नान न्यान पण्डिता॥१०॥
अन्वयार्थ - (शुद्ध तत्वं) शुद्धात्म तत्व (च) और (वेदन्ते) अनुभव करते हैं जो ( त्रिभुवनं) तीन लोक में (न्यानं) ज्ञान का (सुरं) सूर्य है, श्रेष्ठ है (न्यानं मयं) ज्ञानमयी (जलं सुद्धं) शुद्ध जल में (अस्नानं) स्नान करते (न्यान) ज्ञान (पंडिता) पंडित जन - ज्ञानी।
विशेषार्थ - ज्ञानी शुद्ध तत्व (शुद्धात्मा) का अनुभव करते हैं और जानते हैं कि मैं शुद्धात्मा अनन्त गुणों मयी परमात्मा हूँ। तीनों लोकों में त्रिकाल शाश्वत रहने वाला ज्ञान का ईश्वर, परम ज्ञान रवि जो सर्व को प्रकाशित करने, देखने, जानने वाला है वह मैं हूँ ऐसे अपने परमात्म स्वरुप शुद्ध तत्वको ज्ञानी ध्यान में अनुभवते हैं, तथा इसी सत्स्वरुप के अनुभव में रत होकर शुद्ध ज्ञान के जल में स्नान करते हैं।
ज्ञानी रत्नत्रय के शुद्ध जल में, ध्यान के शुद्ध जल में और ज्ञान के शुद्ध जल में स्नान करता है।
ज्ञान का स्वभाव सामान्य विशेष सब को जानना है। जब ज्ञान ने सम्पूर्ण द्रव्य को विकसित पर्याय को और विकार को ज्यों का त्यों जानकर यह निर्णय किया कि जो परिपूर्ण स्वभाव है सो मैं हूँ और जो विकार रह गया है सो मैं नहीहै. तब वह सम्यक कहलाया। सम्यक् वर्शन रूप विकसित पर्याय को सम्यक् दर्शन की विषयभूत परिपूर्ण वस्तु को और अवस्था की कमी को, इन तीनों को सम्यक्ज्ञान यथावत् जानता है - अवस्था की स्वीकृति ज्ञान में है।
सम्यक्दर्शन एक निश्चय को ही (अभेद स्वरुप को ही ) स्वीकार करता है, और सम्कदर्शन का अविनाभावी सम्यक्ज्ञान निश्चय तथा
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