Book Title: Pundit Puja
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 11
________________ वर्तमान में पूर्व अज्ञान जनित अशुद्ध पर्याय चल रही है शरीरादि कर्मबंध है। इनसे छूटने, मुक्त होने पर्याय की शुद्धि के लिये ध्रुव स्वभाव का लक्ष्य, उसका ज्ञान श्रद्धान और निरंतर ममल स्वभाव में रहने की साधना, अभ्यास करना ही पूर्ण शुद्ध मुक्त परमात्मा होने का मार्ग है। इसीलिये द्रव्य स्वभाव का आश्रय लक्ष्य "मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ” ज्ञानी सम्यदृष्टि साधक का पूरा जोर इस पर रहता है। अगर वह इससे स्खलित विचलित होता है तो अभी अज्ञानी है। ज्ञानमार्ग संकल्प शक्ति, दृढ़ता और पुरुषार्थ का मार्ग है। तभी महावीर बन सकता है। प्रश्न- इन सब बातों को समझने- ज्ञानी सम्यग्दृष्टि होने के लिए करना क्या पड़ता है ? समाधान- इसके लिये सद्गुरु तारण स्वामी का विचारमत का पहला ग्रन्थ श्री मालारोहण जी देखें, उसमें सम्यग्दर्शन - ज्ञान आदि की पूरी व्याख्या की गई है। ज्ञान मार्ग तो अलौकिक है। लोग निज कल्पना से जैसा मानते हैं वैसा यह मार्ग नहीं है। आंख में किरकिरी कचरा जरा भी सहन नहीं होता, इसी प्रकार सच्चे ज्ञान मार्ग में तिल भर भी संधि नहीं चलती, आत्मा में भाव बंधन ही न हो तो सम्यग्दृष्टि ज्ञानानन्द स्वभाव में स्थिर होकर विकार का नाश किसलिए करता है ? अतः पर्याय में बंधन है और निमित्त नैमित्तिक सम्बंध है। इस बात को ज्ञानी सम्यग्दृष्टि अच्छी तरह जानता है। इसीलिये अपने देवत्व पद को प्रगट करने के लिये अपने शुद्ध स्वभाव की साधना, ज्ञान, ध्यान करता है। इससे परम ज्ञान को उपलब्ध होकर मुक्ति पाता है यही ज्ञान मार्ग की पूजा की विशेषता महत्व है । यहां बाह्वय क्रिया या पर का अवलम्बन नहीं है। ज्ञानी सद्गुरु परमात्मा की वाणी के आधार से अपने अनुभव प्रमाण चलता है। - प्रश्न- ज्ञानी पंडित जिनवाणी की पूजा कैसे करता है, उसका क्या विधान है ? इसका समाधान सद्गुरु अगली गाथा में कहते हैं.......... [17] गाथा (५) , मति श्रुतस्य संपूरनं न्यानं पंच मयं धुर्व। पंडितो सोपि जानन्ति, न्यानं शास्त्र स पूजते ॥ ५॥ अन्वयार्थ (मति) मतिज्ञान (श्रुतस्य) श्रुतज्ञान को (संपूरनं) सम्पूर्ण, पूरा उघाड़ होना, परिपूर्ण करना, शुद्ध हो जाना (न्यानं पंचमयं ) पंच ज्ञान मति श्रुत अवधि मनः पर्यय केवल ज्ञान, (पंडितो) ज्ञानीजन (सोपि) वह भी यह सब (जानन्ति ) जानते हैं। (न्यानं शास्त्र) ज्ञानमयी शास्त्र जिनवाणी (स) इस तरह (पूजते) पूजा करते हैं । विशेषार्थ सम्यक्मति और श्रुत ज्ञान के बल से ज्ञानी अपने ध्रुव स्वभाव को देखते हैं। जो पंचम केवल ज्ञानमयी अपना ही अविनाशी शुद्ध स्वरूप है। ज्ञानी यह जानते हैं कि संपूर्ण ज्ञानमयी निज शुद्धात्मा है। इसलिये हमेशा निज स्वरूप का स्मरण रखते और स्वयं ज्ञान स्वरुप का अनुभव करते हैं। . इस प्रकार ज्ञानी ज्ञानमयी शास्त्र (जिनवाणी) की सच्ची पूजा करते हैं । शब्द ब्रम्ह को बताने वाला शब्द ब्रह्म है अक्षर अपना अक्षय स्वभाव है। निगोदिया को अक्षर के अनन्तवें भाग ज्ञान (चैतन्य) का प्रगटपना होता है। केवल ज्ञान पूर्ण अक्षय स्वभाव है। ज्ञान की ही सारी महिमा है। कुज्ञान रूप पूरा संसार चल रहा है। सम्यग्ज्ञान मुक्ति परमशान्ति परमानन्द को देने वाला है । - ज्ञान का बोध कराने वाली यह वाणी होती है। अगर वाणी न हो तो परमार्थ को समझा जा सकता नहीं। भगवान महावीर को प्रत्यक्ष जब केवल ज्ञान हो गया और छियासठ दिन तक दिव्यध्वनि नहीं खिरी तो धर्म की प्रभावना नहीं हुई, सत्य वस्तु स्वरूप को लोग नहीं समझ सके, जब दिव्य ध्वनि प्रगट हुई, वाणी खिरी तो जीवों ने धर्म का स्वरुप समझ और तद्रुप आचरण कर मुक्ति मार्ग पर चले । यह वाणी जिनवाणी बाह्र निमित्त है । अन्तर में अपने ज्ञान स्वभाव का प्रगटपना सुबुद्धि का जागरण सम्यग्मति श्रुतज्ञान का होना ही निश्चय जिनवाणी है। ज्ञानी पंडित को निश्चय व्यवहार का [18] .

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