Book Title: Pundit Puja
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 7
________________ सिद्ध परमात्मा के समान अपने शुद्ध स्वरुपमय होना, अर्थात् निज चैतन्य भगवान में अपने उपयोग को लगाना ही देव पूजा की सच्ची विधि है। आत्मा का अपने परिपूर्ण शुद्ध स्वभाव में हो जाना ही परमात्म स्वरुप देवत्वपना है। जो भव्य जीव पूर्ण शुद्ध दशा को उपलब्ध हो गये- वह परमात्मा देव कहाते हैं, जो सशरीरी होते हैं. वह अरिहंत केवल ज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा कहलाते हैं जो अशरीरी होते हैं वह सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं, ये ही सच्चे देव होते हैं। मूलतः प्रत्येक जीवात्मा स्वभाव से परमात्म स्वरुप है, पर अपने स्वरुप का विस्मरण होने से अज्ञान जनित मिथ्यात्व के कारण यह शरीर ही मैं हं - यह शरीरादि मेरे हैं - मैं इन सबका कर्ता हूं इस विपरीत मान्यता के कारण अनादि से संसार की चार गति, चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कर रहा है, जो अपने परमात्म स्वरुप को जान लेता है वह पंडित ज्ञानी इसीलिये बात करते हैं। उस सर्वज्ञ स्वरुप - सिद्ध पद को इष्ट मान कर नमन करते हैं। सर्वज्ञ परमेश्वर की वाणी में वस्तु स्वरुप की ऐसी परिपूर्णता उपदिष्ट हुई है कि प्रत्येक आत्मा स्वरुप की अनुभूति से अर्थात् अपने स्वभाव से पूर्ण परमेश्वर परमात्मा है उसे किसी अन्य की अपेक्षा नहीं है। वैसे ही प्रत्येक पुद्गल परमाणु भी अपने स्वभाव से परिपूर्ण अपने में स्वतंत्र है। इस प्रकार चेतनवजड़ प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र व स्वतः ही परिपूर्ण है। कोई भी तत्व को किसी अन्य तत्व के आश्रय की आवश्यकता नहीं है । ऐसा समझकर अपने परिपूर्ण आत्मा की श्रद्धा व आश्रय करनाव पर का आश्रय छोड़ना ही मुक्ति का मार्ग तारण पंथ है। इस बात को शुद्ध निश्चयनय से पंडित जानते हैं क्योंकि ऐसा ही उन्होंने अपने शुद्धात्म स्वरुप का अनुभूतियुत ज्ञान श्रद्धान किया है। प्रश्न - ज्ञान मार्ग के पथिक ज्ञानी जनों की देवपूजा की विधि क्या है? इसके समाधान में सद्गुरुतारण स्वामी गाथा कहते हैं गाथा (३) उवं नमः विंदते जोगी, सिद्धं भवति सास्वतं। पण्डितो सोपि जानन्ते, देव पूजा विधीयते ॥३॥ अन्वयार्थ - (उर्व) परमात्म स्वरुप (नमः) नमस्कार करते हैं (विंदते) अनुभूति करते, उस दशा में रहते (जोगी) साधक - जो ज्ञान योग की साधना करते, ध्यान समाधि लगाते हैं। सिद्धं) सिद्ध परमात्मा (भवति) हो जाते हैं। (सास्वतं) जो अविनाशी ध्रुव पद है। (पंडितो) ज्ञानी जन सम्यग्दृष्टि ज्ञानी (सोपि) वे भी इसी प्रकार (जानन्ते) जानते हैं (देवपूजा) अपने इष्ट की सिद्धि, स्वयं के देवत्व पद को प्राप्त करना (विधीयते) उसका यह क्रम - विधि - विधान है। विशेषार्थ - ऊँकार स्वरुपको नमस्कार है जिस निर्विकल्पस्वरुप को साधु योगी जन अनुभवते हैं और निज स्वभाव में लीन होकर शाश्वत सिद्ध पद प्राप्त करते हैं। जो आत्मानुभवी जीव पंडित ज्ञानी हैं वे यह जानते हैं कि अपने शुद्ध स्वभाव में लीन होना ही सच्ची देवपूजा है। जो जीव सत्संग और भेवज्ञान द्वारा अपने सत्स्वरुप को जान लेता है। जिसे निज शुद्धात्मानुभूतियुत तत्व निर्णय हो जाता है वह पंडित ज्ञानी कहलाता है। ___पंडित की परिभाषा श्री तारण स्वामी ने श्रावकाचार में निम्नप्रकार की है देवं च ज्ञान रूपेन, परमिस्टी च संजुतं । सो अहं देह मध्येषु, यो जानाति सपंडिता ।। ४२॥ श्रावकाचार देव जो ज्ञान स्वरुपी है और परमेष्ठी पद से संयुक्त है। वैसा ही मैं इस देह में विराजमान हूँ, जो ऐसा जानते हैं वह पंडित हैं। कर्म अस्ट विनिर्मुक्तं,मुक्ति स्थानेषु तिस्ठिते। सो अहं देह मध्येषु, योजानाति सपंडिता॥४३|| श्रावकाचार जो आठों कर्मों से पूर्ण मुक्त शुद्ध सिद्ध परमात्मा मोक्ष स्थान लोक के अग्रभाग में तिष्टते हैं, वैसा ही मैं इस देह में विराजमान हूँ जो ऐसा जानते हैं - वह पंडित हैं। दृष्टि का विषय द्रव्य स्वभाव है, उसमें तो अशुद्धता की [9] [10]

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