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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
णिच्चो णाणवकासो ण सावकासो पदेसदो भेदा। खंधाणं पि य कत्ता पविहत्ता कालसंखाणं ।। ८०।। नित्यो नानवकाशो न सावकाशः प्रदेशतो भेत्ता। स्कंधानामपि च कर्ता प्रविभक्ता कालसंख्यायाः।। ८०।।
परमाणोरेकप्रदेशत्वख्यापनमेतत्। __ परमाणु: स खल्वेकेन प्रदेशेन रूपादिगुणसामान्यभाजा सर्वदैवाविनश्वरत्वान्नित्यः। एकेन प्रदेशेन पदविभक्तवृत्तीनां स्पर्शादिगुणानामवकाशदानान्नानवकाशः।
गाथा ८०
अन्वयार्थ:- [प्रदेशतः ] प्रदेश द्वारा [ नित्यः ] परमाणु नित्य है, [न अनवकाशः] अनवकाश नहीं है, [ न सावकाश:] सावकाश नहीं है, [ स्कंधानाम् भेत्ता] स्कन्धोंका भेदन करनेवाला [ अपि च कर्ता] तथा करनेवाला है और [ कालसंख्यायाः प्रविभक्ता] काल तथा संख्याको विभाजित करनेवाला है [ अर्थात् कालका विभाजन करता है और संख्याका माप करता है।
टीका:- यह, परमाणुके एकप्रदेशीपनेका कथन है।
जो परमाणु है, वह वास्तवमें एक प्रदेश द्वारा - जो कि रूपादिगुणसामान्यवाला है उसके द्वारा - सदैव अविनाशी होनेसे नित्य है; वह वास्तवमें एक प्रदेश द्वारा उससे [-प्रदेशसे] अभिन्न अस्तित्ववाले स्पर्शादिगुणोंको अवकाश देता है इसलिये अनवकाश नहीं है; वह वास्तवमें एक प्रदेश द्वारा [ उसमें ] द्वि-आदि प्रदेशोंका अभाव होनेसे, स्वयं ही आदि, स्वयं ही मध्य और स्वयं ही अंत होनेके कारण [अर्थात् निरंश होनेके कारण], सावकाश नहीं है; वह वास्तवमें एक प्रदेश द्वारा स्कंधोंके भेदका निमित्त होनेसे [अर्थात् स्कंधके बिखरने - टूटनेका निमित्त होनेसे ] स्कंधोंका भेदन करनेवाला है; वह वास्तवमें एक प्रदेश द्वारा स्कंधके संघातका निमित्त होनेसे [अर्थात् स्कन्धके मिलनेका -रचनाका निमित्त होनेसे] स्कंधोंका कर्ता है; वह वास्तवमें एक प्रदेश द्वारा - जो कि एक
नहि अनवकाश, न सावकाश प्रदेशथी, अणु शाश्वतो, भेत्ता रचयिता स्कंधनो, प्रविभागी संख्या-काळनो। ८०।
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