Book Title: Punchaastikaai Sangrah
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 218
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन कहानजैनशास्त्रमाला ] इह हि संसारिणो जीवादनादिबंधनोपाधिवशेन स्निग्ध: परिणामो भवति । I परिणामात्पुनः पुद्गलपरिणामात्मकं कर्म । कर्मणो नारकादिगतिषु गतिः । गत्यधिगमनाद्देहः । देहादिन्द्रियाणि। इन्द्रियेभ्यो विषयग्रहणम् । विषयग्रहणाद्रागद्वेषौ । रागद्वेषाभ्यां पुनः स्निग्धः परिणामः। परिणामात्पुनः पुद्गलपरिणामात्मकं कर्म । कर्मणः पुनर्नारकादिगतिषु गतिः । गत्यधिगमनात्पुनर्देहः । देहात्पुनरिन्द्रियाणि। इन्द्रियेभ्यः पुनर्विषयग्रहणम् । विषयग्रहणात्पुना रागद्वेषौ । रागद्वेषाभ्यां पुनरपि स्निग्धः परिणामः। एवमिदमन्योन्यकार्यकारणभूतजीवपुद्गल परिणामात्मकं कर्मजालं संसारचक्रे जीवस्यानाद्यनिधनं अनादिसनिधनं वा चक्रवत्परिवर्तते। तदत्र पुद्गलपरिणामनिमित्तो जीवपरिणामो जीवपरिणामनिमित्तः पुद्गलपरिणामश्च वक्ष्यमाण-पदार्थबीजत्वेन संप्रधारणीय इति।। १२८-१३०।। गाथा १२८-१३० [ १८९ अन्वयार्थः- [ यः ] जो [ खलु] वास्तवमें [ संसारस्थः जीवः ] संसारस्थित जीव है [ ततः तु परिणामः भवति] उससे परिणाम होता है [ अर्थात् उसे स्निग्ध परिणाम होता है ], [ परिणामात् कर्म ] परिणामसे कर्म और [ कर्मण: ] कर्मसे [ गतिषु गतिः भवति ] गतियोंमें गमन होता है। [गतिम् अधिगतस्य देहः ] गतिप्राप्तको देह होती है, [ देहात् इन्द्रियाणि जायंते ] देहथी इन्द्रियाँ होती है, [तैः तु विषयग्रहणं ] इन्द्रियोंसे विषयग्रहण और [ ततः रागः वा द्वेषः वा ] विषयग्रहणसे राग अथवा द्वेष होता है । [ एवं भावः ] ऐसे भाव, [ संसारचक्रवाले] संसारचक्रमें [ जीवस्य ] जीवको [ अनादिनिधनः सनिधनः वा ] अनादि - अनन्त अथवा अनादि - सान्त [ जायते ] होते रहते हैं - [ इति जिनवरैः भणितः ] ऐसा जिनवरोंने कहा है । टीका:- इस लोकमें संसारी जीवसे अनादि बन्धनरूप उपाधिके वश स्निग्ध परिणाम होता है, परिणामसे पुद्गलपरिणामात्मक कर्म, कर्मसे नरकादि गतियोंमें गमन गतिकी प्राप्तिसे देह, देहसे इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंसे विषयग्रहण, विषयग्रहणसे रागद्वेष, रागद्वेषसे फिर स्निग्ध परिणाम, परिणामसे फिर पुद्गलपरिणामात्मक कर्म, कर्मसे फिर नरकादि गतियोंमें गमन, गतिकी प्राप्तिसे फिर देह, देहसे फिर इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंसे फिर विषयग्रहण, विषयग्रहणसे फिर रागद्वेष, रागद्वेषसे फिर पुनः स्निग्ध परिणाम। इस प्रकार यह अन्योन्य 'कार्यकारणभूत जीवपरिणामात्मक और पुद्गलपरिणामात्मक कर्मजाल संसारचक्रमें जीवको अनादि - अनन्तरूपसे अथवा अनादि - सान्तरूपसे चक्रकी भाँति पुनःपुन: होते रहते हैं 1 १। कार्य अर्थात् नैमित्तिक, और कारण अर्थात् निमित्त । [ जीवपरिणामात्मक कर्म और पुद्गलपरिणामात्मक कर्म परस्पर कार्यकारणभूत अर्थात् नैमित्तिक-निमित्तभूत हैं। वे कर्म किसी जीवको अनादि - अनन्त और किसी जीवको अनादि - सान्त होते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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