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२३८] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द ज्ञानं दर्शनमिति कर्तृकर्मकरणानामज्ञानं दर्शनमिति कर्तृकर्मकरणानामभेदान्निश्चितो भवति। अतश्चारित्रज्ञानदर्शनरूपत्वाज्जीवस्वभावनियतचरितत्वलक्षणं
निश्चयमोक्षमार्गत्वमात्मनो नितरामुपपन्नमिति।। १६२।।
जेण विजाणदि सव्वं पेच्छदि सो तेण सोक्खमणुहवदि। इदि तं जाणदि भविओ अभवियसत्तो ण सद्दहदि।। १६३।।
येन विजानाति सर्वं पश्यति स तेन सौख्यमनुभवति। इति तज्जानाति भव्योऽभव्यसत्त्वो न श्रद्धत्ते।। १६३।।
सर्वस्यात्मनः संसारिणो मोक्षमार्गार्हत्वनिरासोऽयम्।
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अवलोकता है, वह आत्मा ही वास्तवमें चारित्र है, ज्ञान है, दर्शन है-ऐसा कर्ता-कर्म-करणके अभेदके कारण निश्चित है। इससे [ ऐसा निश्चित हुआ कि] चारित्र-ज्ञान-दर्शनरूप होनेके कारण आत्माको जीवस्वभावनियत चारित्र जिसका लक्षण है ऐसा निश्चयमोक्षमार्गपना अत्यन्त घटित होता है [अर्थात् आत्मा ही चारित्र-ज्ञान-दर्शन होनेके कारण आत्मा ही ज्ञानदर्शनरूप जीवस्वभावमें दृढ़रूपसे स्थित चारित्र जिसका स्वरूप है ऐसा निश्चयमोक्षमार्ग है] ।। १६२ ।।
गाथा १६३
अन्वयार्थ:- [ येन ] जिससे [आत्मा मुक्त होनेपर ] [ सर्वं विजानाति ] सर्वको जानता है और [ पश्यति ] देखता है, [ तेन] उससे [ सः ] वह [ सौख्यम् अनुभवति ] सौख्यका अनुभव करता है; - [इति तद् ] ऐसा [भव्यः जानाति ] भव्य जीव जानता है, [ अभव्यसत्त्वः न श्रद्धत्ते ] अभव्य जीव श्रद्धा नहीं करता।
टीका:- यह, सर्व संसारी आत्मा मोक्षमार्गके योग्य होनेका निराकरण [ निषेध ] है
१। जब आत्मा आत्माको आत्मासे आचरता है-जानता है-देखता है, तब कर्ता भी आत्मा, कर्म भी आत्मा और
करण भी आत्मा है; इस प्रकार यहाँ कर्ता-कर्म-करणकी अभिन्नता है।
जाणे-जुओ छे सर्व तेथी सौख्य-अनुभव मुक्तने; -आ भावजाणे भव्य जीव , अभव्य नहि श्रद्धा लहे। १६३।
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