________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
कहानजैनशास्त्रमाला]
नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[ २११
निवेशयति, तदास्य निष्क्रियचैतन्यरूपस्वरूपविश्रान्तस्य वाङ्मनःकायानभावयतः स्वकर्मस्वव्यापारयतः सकलशुभाशुभकर्मेन्धनदहनसमर्थत्वात् अग्निकल्पं परमपुरुषार्थसिद्ध्युपायभूतं ध्यानं जायते इति। तथा चोक्तम्- 'अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदत्तं। लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदिं जंति''। 'अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा। तण्णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणं खयं कुणई''।।१४६ ।।
है, तब उस योगीको- जो कि अपने निष्क्रिय चैतन्यरूप स्वरूपमें विश्रान्त है, वचन-मन-कायाको नहीं 'भाता और स्वकर्मोमें व्यापार नहीं करता उसे- सकल शुभाशुभ कर्मरूप ईंधनको जलानेमें समर्थ होनेसे अग्निसमान ऐसा, परमपुरुषार्थसिद्धिके उपायभूत ध्यान प्रगट होता है।
फिर कहा है कि -
*"अज्जु वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदतं।
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वृर्दि जंति।। 'अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा। तण्णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणं खयं कुणइ।।
[अर्थ:- इस समय भी त्रिरत्नशुद्ध जीव [- इस काल भी सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप तीन रत्नोंसे शुद्ध ऐसे मुनि ] आत्माका ध्यान करके इन्द्रपना तथा लौकान्तिक-देवपना प्राप्त करते हैं और वहाँ से चय कर [ मनुष्यभव प्राप्त करके] निर्वाणको प्राप्त करते हैं।
श्रुतिओंका अन्त नहीं है [-शास्त्रोंका पार नहीं है], काल अल्प है और हम 'दुर्मेध हैं; इसलिये वही केवल सीखने योग्य है कि जो जरा-मरणका क्षय करे।]
* इन दो उद्धृत गाथाओंमेंसे पहली गाथा श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत मोक्षप्राभृतकी है।
१। भाना = चिंतवन करना; ध्याना; अनुभव करना।
२। व्यापार = प्रवृत्ति [ स्वरूपविश्रान्त योगीको अपने पूर्वोपार्जित कर्मोंमें प्रवर्तन नहीं है, क्योंकि वह मोहनीयकर्मके विपाकको अपनेसे भिन्न-अचेतन-जानता है तथा उस कर्मविपाकको अनुरूप परिणमनसे उसने उपयोगको विमुख किया है।]
३। पुरुषार्थ = पुरुषका अर्थ; पुरुषका प्रयोजन; आत्माका प्रयोजन; आत्मप्रयोजन। [ परमपुरुषार्थ अर्थात् आत्माका
परम प्रयोजन मोक्ष है और वह मोक्ष ध्यानसे सधता है, इसलिये परमपुरुषार्थकी [-मोक्षकी] सिद्धिका उपाय ध्यान है।]
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com