Book Title: Punchaastikaai Sangrah
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 264
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन [ २३५ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसमाहित आत्मैव जीवस्वभावनियतचरित्रत्वान्निश्चयेन मोक्षमार्गः। अथ खलु कथञ्चनानाद्यविद्याव्यपगमाव्यवहारमोक्षमार्गमनुप्रपन्नो धर्मादितत्त्वार्थाश्रद्धानाङ्गपूर्वगतार्थाज्ञानातपश्चेष्टानां धर्मादितत्त्वार्थश्रद्धानाङ्गपूर्वगतार्थज्ञानतपश्चेष्टानाञ्च त्यागोपादानाय प्रारब्धविविक्तभावव्यापारः, कुतश्चिदुपादेयत्यागे त्याज्योपादाने च पुन: प्रवर्तितप्रतिविधानाभिप्रायो, यस्मिन्यावति काले विशिष्टभावनासौष्ठववशात्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैः स्वभावभूतैः सममङ्गाङ्गिभावपरिणत्या - - - - - - - - - सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र द्वारा समाहित हुआ आत्मा ही जीवस्वभावमें नियत चारित्ररूप होने के कारण निश्चयसे मोक्षमार्ग है। अब [विस्तार ऐसा है कि ], यह आत्मा वास्तवमें कथंचित् [-किसी प्रकारसे , निज उद्यमसे ] अनादि अविद्याके नाश द्वारा व्यवहारमोक्षमार्गको प्राप्त होता हुआ, धर्मादिसम्बन्धी तत्त्वार्थअश्रद्धानके पदार्थोंसम्बन्धी अज्ञानके और ज्ञानके और अतपमें चेष्टाके त्याग हेतुसे तथा धर्मादिसम्बन्धी तत्त्वार्थ-श्रद्धानके के. अंगपर्वगत पदार्थोंसम्बन्धी ज्ञानके और तपमें चेष्टाके ग्रहण हेतसे [-तीनोंके त्याग तथा तीनोंके ग्रहण हेतसे ] 'विविक्त भावरूप व्यापार करता हआ. और किसी कारणसे ग्राह्यका त्याग हो जानेपर और त्याज्यका ग्रहण हो जानेपर उसके प्रतिविधानका अभिप्राय करता हुआ, जिस काल और जितने काल तक विशिष्ट भावनासौष्ठवके कारण स्वभावभूत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रके साथ "अंग-अंगीभावसे परिणति द्वारा १। विविक्त = विवेकसे पृथक किए हुए [अर्थात् हेय और उपादेयका विवेक करके व्यवहारसे उपादेय रूप जाने हुए। [जिसने अनादि अज्ञानका नाश करके शुद्धिका अंश प्रगट किया है ऐसे व्यवहार-मोक्षमार्गी [ सविकल्प] जीवको निःशंकता-निःकांक्षा-निर्विचिकित्सादि भावरूप, स्वाध्याय-विनयादि भावरूप और निरतिचार व्रतादि भावरूप व्यापार भूमिकानुसार होते हैं तथा किसी कारण उपादेय भावोंका [-व्यवहारसे ग्राह्य भावोंका] त्याग हो जाने पर और त्याज्य भावोंका उपादान अर्थात् ग्रहण हो जाने पर उसके प्रतिकाररूपसे प्रायश्चित्तादि विधान भी होता है।] २। प्रतिविधान = प्रतिकार करनेकी विधि; प्रतिकारका उपाय; इलाज। ३। विशिष्ट भावनासौष्ठव = विशेष अच्छी भावना [अर्थात् विशिष्टशुद्ध भावना ]; विशिष्ट प्रकारकी उत्तम भावना। ४। आत्मा वह अंगी और स्वभावभूत सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र वह अंग। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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