Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 17
________________ पृथ्वीचन्द्रचरित्र में स्थान स्थान पर आने वाले कठिन शब्दों का 'संकेत' में अर्थ दिया गया है। 'भ्रा०' संज्ञक प्रति में एकसाथ लिखे हुए 'संकेत' में से मूल के जिन जिन पाठों पर 'संकेत' के अर्थ हैं उन उन पाठों पर टिप्पणियों के अंक देकर नीचे 'संकेत' का अर्थ " " ऐसे दो अवतरण चिह्नों के मध्य में दिया है और उसके पहले यह अर्थ संकेत' का है वह जानने के लिए 'सङ्केतः' ऐसा सम्पादकजी ने स्वतः लिखा है। साथ ही सम्पादकजी ने 'संकेत' की मात्र एक ही प्रति मिलने के कारण और वह भी प्रमाण में शुद्ध न होने से जिन पर 'संकेत' के अर्थ है उन मूलप्रन्थ के स्थल खोजने में धीरज और सावधानी रखकर यथास्थान पर 'संकेत' के पाठ नीचे टिप्पणी में दिये हैं। मूलग्रन्थ में और टिप्पणियों में ( ) ऐसे, [ ] ऐसे और--( ) ऐसे चिह्नों में जो पाठ दिये हैं उनकी और अन्य भी संशोधन सम्बन्धी जानकारी के लिए 'प्राकृत ग्रन्थ परिषद्' के तीसरे ग्रन्थाङ्क रूप से प्रसिद्ध 'चउप्पन्नमहापरिसचरियं' ग्रन्थ की प्रस्तावना के ३७ वें पृष्ट को देखने का सूचन पाठकों से करता हूँ। जिन टिप्पणियों के आगे या पंछे किसी भी प्रति की संज्ञा न हो वें टिप्पणियाँ सम्पादकजी की ही लिखी हुई है सा समझा जाय (देखो पृ० २ टि. ५, पृ० ३ टि० ५, पृ० १५ टि० १, पृ० २०२ टि०२)। परिशिष्ट परिचय इस ग्रन्थ के अन्त में सात परिशिष्ट दिये गये हैं । जिनका संक्षित परिचय इस प्रकार हैप्रथम परिशिष्ट [ पृ० २२५ से २३० ] इस ग्रन्थ में आये हुए नग, नगरी, उद्यान, नृप, श्रेष्टी आदि समग्र विशेष नामों को प्रत्येक के परिचय और स्थानसूचक पृष्ठांक के साथ अकारादि क्रम से इसमें दिये हैं। द्वितीय परिशिष्ट (२३१ से २३४) इसमें प्रथम परिशिष्ट में आये हुए विशेषनामों को कुल ४६ विभागों में विभक्त कर उन विभागों को अकारादि क्रम से बताये हैं और उसके बाद प्रत्येक विभाग में आनेवाले विशेषनामों को उस उस विभाग के नीचे दिये हैं। तृतीय परिशिष्ट (२३४ वा पृष्ठ) इस ग्रन्थ में अपभ्रंशभाषानिबद्ध कुल २३ पद्य हैं। इनका, विषय और स्थानदर्शक पृष्टांक के साथ इस परिशिष्ट में निर्देश किया है। चतुर्थ परिशिष्ट (पृ० २३५ वा) इस ग्रन्थ में जहाँ जहाँ श्रुत, सरस्वती, जिन और मुनि आदि की स्तुति-वंदना आती है उनका उनके पृष्ठांक के साथ इस परिशिष्ट में निर्देश किया है। पंचम परिशिष्ट (पृ० २३५ वाँ) इस ग्रन्थ में ऋतु, प्रमदवन, अटवी, उद्यान, कान्तार, स्वयंवरमण्डप, जन्मोत्सव, पाणिग्रहण, नृप, राज्ञी, जिनमन्दिर, देश, नगर, नगरी, और सूर्योदय आदि के हृदयंगम वर्णन है। ऐसे कुल ६७ वर्णको का उनके पृष्ठांक के साथ इस परिशिष्ट में निर्देश किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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