Book Title: Pravachansara Part 01 Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain Publisher: Apbhramsa Sahitya AcademyPage 10
________________ में व्याप्त होकर रहता है। यह कहा गया है कि ज्ञानी पर पदार्थों को न तो ग्रहण करते हैं न छोड़ते हैं और न ही बदलते हैं। वे तो पदार्थों को जानते-देखते हैं (सो जाणदि पेच्छदि) । यहाँ यह नहीं कहा जा सकता है कि आत्मा ज्ञान के द्वारा जाननेवाला ज्ञायक होता है। किन्तु आत्मा स्वयं ही ज्ञान में रूपान्तरित होता है और समस्त पदार्थ ज्ञान में स्थित रहते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द निःसंकोच यह बात कहते हैं कि - यदि अनुत्पन्न हुई और नष्ट हुई पर्याय ज्ञान में प्रत्यक्ष नहीं होती है (तो) निश्चय ही इस कारण उस ज्ञान को दिव्य कौन प्रतिपादन करेगा ? केवलज्ञान अतीन्द्रिय होता है। प्रश्न है कि अरिहंत अवस्था में केवली की क्रियाएँ कैसी होती है ? उत्तर में कहा गया है कि अरहंत अवस्था में अरिहंतों का उठना, बैठना, खड़े रहना और उपदेश देना स्वाभाविक रूप से घटित होता है, जैसे स्त्रियों में मातृत्व स्वाभाविक रूप से घटित होता है। यद्यपि अरिहंत पुण्य के प्रभाव से होते हैं, किन्तु उनकी क्रियाएँ आसक्ति-रहित कर्मक्षय के निमित्त होती है, इसलिए उनको क्षायिकी क्रिया कहते हैं। यहाँ यह समझना चाहिये कि यदि ज्ञानी का ज्ञान पदार्थों को अवलम्बन करके क्रम से उत्पन्न होता है तो वह ज्ञान न ही नित्य, न क्षायिक और न ही सर्वव्यापक होता है। आश्चर्य है कि! दिव्य ज्ञान तीन काल में चिरस्थायी असमान सभी जगह स्थित नाना प्रकार के समस्त पदार्थों को एक साथ जानता है। यह दिव्य ज्ञान की ही महिमा है। आत्मा उन पंदार्थों को जानता हुआ भी उन पदार्थों को न ही रूपान्तरित करता है, न ग्रहण करता है और न ही उन पदार्थों में उत्पन्न होता है, इसलिए वह आत्मा अबंधक (कर्मबंध नहीं करनेवाला) कहा गया है। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि जैसे ज्ञान अतीन्द्रिय और इन्द्रिय भेदवाला होता है, उसी प्रकार सुख भी अतीन्द्रिय और इन्द्रिय भेदवाला होता प्रवचनसार (खण्ड-1) Jain Education International For Personal & Private Use Only (3) www.jainelibrary.orgPage Navigation
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