Book Title: Pravachansara Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 8
________________ ग्रन्थ एवं ग्रंथकार संपादक की कलम से आचार्यकुन्दकुन्द विश्व प्रसिद्ध आध्यात्मिक दार्शनिक हैं। आध्यात्मिक नैतिक-चारित्रवाद की संभावना को पुष्ट करने के लिए वे दार्शनिक अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि पदार्थ मूलरूप से परिवर्तन स्वभाववाला होता है। जब जीव शुभ, अशुभ या शुद्ध भाव से रूपान्तर को प्राप्त होता है तो वह शुभ, अशुभ और शुद्ध होता है। इस लोक में परिवर्तन के बिना पदार्थ नहीं है और पदार्थ के बिना परिवर्तन नहीं है। पदार्थ द्रव्य-गुण-पर्याय में स्थित रहता है और वह अस्तित्ववान कहा गया है। आत्म द्रव्य पर इस अवधारणा को प्रयुक्त करते हुए आचार्य कहते हैं कि जब आत्मा शुद्ध क्रियाओं के संयोग से युक्त होता है तो मोक्ष सुख को प्राप्त करता है तथा जब वह शुभ क्रियाओं (देव, मुनि, गुरु भक्ति, दान, श्रेष्ठ आचरण, उपवासादि) में संलग्न होता है तो लौकिक, अलौकिक सुख प्राप्त करता है। जब वही आत्मा अशुभ क्रियाओं में संलग्न होता है तो परिणामस्वरूप खोटा मनुष्य और पशु होकर असहनीय दुःखों से घिर जाता आध्यात्मिक-चारित्रवाद और शुद्धोपयोग समानार्थक है। आचार्यकुन्दकुन्द का कहना है कि शुद्धोपयोगी आत्माओं का सुख श्रेष्ठ, आत्मोत्पन्न, इन्द्रिय विषयों से परे, अनुपम, अनंत और शाश्वत होता है। शुद्धोपयोगी श्रमण की जीवन दृष्टि की व्याख्या करते हुए आचार्य का कथन है कि वह आसक्ति रहित (विगदरागो), सुख-दुःख में सम (समसुहदुक्खो), पदार्थ और आगम के प्रवचनसार (खण्ड-1). (1) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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