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१८ ] श्रीप्रवचनसारटीका। उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य संयुक्त है और गुणरूप व पयाय सहित है उसको द्रव्य ऐसा कहते है।
अन्वय सहित विशेपार्थ-(जत् ) जो (अपरिचत्तसहावेण) नहीं त्यागे हुए खभाव रूपसे रहता है अर्थात् अपने अस्तित्व या सत् स्वभावसे भिन्न नहीं है, (उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं ) उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सहित है । (गुणवं च सपनाय) गुणवान होकर पर्याय सहित है इस तरह सत्ता आदि तीन लक्षणोको रखनेवाला है (तं ढव्वत्ति) उसको द्रव्य ऐसा (बुञ्चति) सर्वज्ञ भगवान कहते हैं। यह द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्य तथा गुण पर्यायोके साथ लभ्य और लक्षणकी अपेक्षा भेद रूप होने पर भी सत्ताके भेदको नहीं रखता है। जिसका लक्षण या स्वरूप कहा जाय वह लक्ष्य है। और जो उसका विशेष स्वरूप है वह लक्षण है । तब यह द्रव्य क्या करता है ? अपने स्वरूपसे ही उस विधपनेको आलंबन करता है। इसका भाव यह है कि यह द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप तथा गुणपर्याय रूप परिणमन करता है, शुद्धात्माकी तरह, जैसे केवलज्ञानकी उत्पत्तिके समयमे शुद्ध आत्माके खरूप ज्ञानमई निश्चल अनुभवरूप कारण समयसार रूप पर्यायका विनाश होने शुद्धात्माका लाभ या उसकी प्रगटता रूप कार्य समयसारका उत्पाद, या जन्म होता है, कारण समयसारका व्यय या नाश होता है और इन दोनो पर्यायोके आधार रूप परमात्म द्रव्यकी अपेक्षाले ध्रुवपना या स्थिरपना रहता है । तथा उस परमात्माके अनत ज्ञानादि गुण होते हैं । गति मार्गणासे विपरीत सिद्ध गति व इन्द्रिय मार्गणासे विपरीत अतीद्रियपना आदि लक्षणको रखनेवाली शुद्ध पर्यायें